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कलिका के प्रति
हो कितनी सुकुमार सलीनी, कलिके, प्रेम सनी-सी ;
अन्तरमे रंग भरे अनूठा, जीवन-ज्योति धनी-सी ।
इन मादक घड़ियोंमें अपने यौवनं सकुचाती ; कुछ-कुछ खिलती-सी जाती हो, अवनत नयन लजाती । मृदु चितवनसे प्राकपित शत-शत युवकोंने देखा ; मधुर रँगीली-सी प्रांखोंमें, उन्मादक-सी रेखा । यौवनके स्वणिमते युगमें यह कुंकुम-सी काया ; तैर रही जीवन सागरमें वनकर मोहक माया ।
पर पह्नुरियोंके समीपतर इन शूलोंका रहना ; खटक रहा प्रतिपल, सुन्दरि, सचमुच ही तू सच कहना । इन लियोंके मोह जालमें तनिक न तुम फँस जाना ; लोलुप मधुके मधुर प्रेमका, केवल, सजनि, बहाना । इनकी प्रीति क्षणिक है, पगली, सरस देख आ जाते ; रम रहने तक मौज उड़ाते, नीरस कर उड़ जाते । मैं भी कभी कली थी सुन्दर, यों ही मुसकाती थी ; शैशवके मद भरे प्रातमें मञ्जु गीत गाती थी । प्राती मलयवायु थी मुझमें, दुख भर-भर जाती थी ; उपा अरुणिमा देती, संध्या, दुख भर ले जाती थी ।
तव इन मधुपोंने या प्रेम डोरके वन्धनमें
मुझको मधुमय गीत सुनाया ; कस, अपना जाल बिछाया ।
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