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पन्थी
शाका दीप जलाये पन्यी चला ग्राज किस पथपर ? पैर बढ़ाये चला जा रहा अपने गरपर रखकर गठरी ; कहां हृदयकी प्याग बुझाने चला छोड़कर है यह नगरी । भूल न जाये राह, जा रहा मनमें किसकी दुआ मनाता,
जीमें किस उलझनके सुन्दरमे मुन्दर यह स्वप्न वनाता । घरपर वाट देती होगी बैठी क्या, इसकी भी गती ;
याद इसे भी ग्राती होगी ग्रपनी बीती हुई कहानी । किसे सुनाये, किमे बताये, राह अकेली, साथ न प्रियवर ;
आमाका दीप जलाये पन्थी चला ग्राज किस पथपर ? अरमानोंमें झूम रही है क्या इसके भी एक दुराना ;
जिसके कारण कुलाया-सा बढ़ा जा रहा भूसा प्यासा जीवनकी दुविधामांने नित इमे कर दिया है क्या उन्मन ;
गूंज रहे कानोंमें इसके प्राणोंके क्या शत-शत क्रन्दन । वावाने तोड़ दिया क्या इसका ग्रन्तिम एक सहारा ;
ढूंढ रहा है क्या दुनियाके जानेको उम पार किनारा । कोन प्रेरणा लेने देती इसको चैन कही न घढ़ी-भर ; का दीप जलाये पत्थी चला ग्राज किस पथपर ?
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