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स्वप्नमें साम्राज्य उसने पा लिया , मानवश भी दण्ड कितनोंको दिया , शत्रु चढ़ पाया तभी उस राज्यपर , सामने लड़ने चला वह शीघ्रतर ।११
देखके हथियार सव उसके नये , रंकके दृग शीघ्र भयसे खुल गये , रह गया चित्राम-सा दृगको मले , सोचता क्या भोग मुझको थे मिले ।१२
ले गया है कौन अव उनको छुड़ा , हो रहा मुझको यहाँ विस्मय बड़ा , सौम्य-सी इक सृष्टि जो देखी नई , वह अचानक लुप्त क्योंकर हो गई।१३
स्वप्नसे ही लोकके ये भोग हैं , खेद ! उसमें मर्त्य देते योग हैं ! सोचिये तो स्वप्न-सा संसार है , धर्म इसमें सार सौ सी वार है ।१४