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भरत द्वारा ६८ भाइयों को अपने अधीन होने का संदेश
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आप अपनी इच्छानुसार हमारा उपयोग कीजिये या हमें दान में दीजिए । समुद्र में तो कदाचित् जल खत्म हो सकता है; लेकिन हमारा धन कदापि क्षय नहीं हो सकता। हमारी लम्बाई १२ योजन और चौड़ाई ६ योजन है । इतनी विस्तृत हो कर भी हम सदा चौकीदार सेवक की तरह आपकी सेवा में रहेंगी । हम भूगर्भ में भी आपके साथ चलेंगीं । हम आठ चक्रों पर प्रतिष्ठित हैं और आपको आश्वागन देती हैं कि हमारे ६ हजार आज्ञापालक यक्ष सदा आपकी निधियों को भरते रहेंगे। वायु जैसे महावन को वीरान बना देती है, वैसे ही सुषेण सेनापति गंगा के दक्षिण प्रदेश को वीरान-सा बना कर लौट आया । इस तरह साठ हजार वर्ष में छह खंड पृथ्वी को जीत कर चक्र निर्दिष्ट मार्ग मे उसके पीछे-पीछे चलते हुए ससैन्य भरतचक्रवर्ती अयोध्यानगरी में पहुंचे। दूर- सुदूर भूभागों से बारह वर्ष तक राजाओं ने आ-आ कर भरत महाराजा का चक्रवर्तित्व स्वीकार किया ।
एक दिन भरत चक्रवर्ती ने अपने परिवार की सारसंभाल करने वाली बहन सुन्दरी के अंगअंग दुर्बल और हड्डियां निकली हुई देख कर अपने निकटवर्ती मेवकों में कुपित होकर कहा - 'सेवको ! क्या मेरे यहाँ भोजन की कमी है ? फिर क्या कारण है कि मेरे परिवार की यह महिना अस्थिपंजर मात्र रह गई है । क्या इसे पोषक खुराक नहीं दिया जाना ?' सेवकों ने उत्तर दिया- स्वामिन ! आप जब से विजययात्रा करने गये हैं, तब से अब तक यह पारणारहित आचाम्ल ( आयंबिल) तप कर रही है । उसी समय यह समाचार मिला कि 'ऋषभदेव भगवान् भूमंडल में विचरण करते-करते अष्टापद-पर्वत पर पधारे गये हैं ।' यह सुनते ही चक्रवर्ती भरत सुन्दरी को साथ ले कर प्रभु के वदनार्थं गये । प्रभु के उपदेश मे संसारविरक्त हो कर सुन्दरी ने दीक्षा ग्रहण की। इधर चक्रवर्तीपद के राज्याभिषेक महोत्सव की तैयारियां हो रही थी । भरतेश ने सभी सम्बन्धित राजाओं के पास दून भेज कर संदेश कहलवाया कि 'अगर वे अपना राज्य सहीसलामत चाहते हैं तो चक्रवर्ती भरत की अधीनता स्वीकार करें। और सेवा में पहुँचें ।' यह सुन कर और सब राजाओं ने तो अधीनता स्वीकार कर ली, लेकिन भरत के ६८ भाइयों ने उसकी अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। उन्होंने परस्पर विचारविनिमय करके दूत द्वारा भरत को कहलवाया कि, "हम भाई के नाते उनकी सेवा करने को तैयार हैं, परन्तु उनकी अधीनता स्वीकार करके राज्य देने को तैयार नहीं। राज्य हमें और उन्हें हमारे पिताजी ने दिया है । भरत की सेवा करने से हमें अधिक क्या मिलेगा ? जब यमराज आयेगा तब क्या वह उसे रोक सकेगा ? शरीर को दुर्बल करने वाली जरा-राक्षसी का क्या वह निग्रह कर लेगा ? दुःख देने वाले रोगरूपी शिकार को क्या वह मिटा सकेगा ! बढ़ती हुई तृष्णा पिशाची का क्या वह मर्दन कर सकेगा ? हमारे द्वारा की गई सेवा का फल इस रूप में देने में जब भरत समर्थ नहीं है तो हम और वह समान हैं। हम उनसे किस बात कम हैं ? अतः हम दोनों का मनुष्यत्व समान हैं; तो फिर कौन किसके लिए सेव्य है ? क्या अपने निजी असंतोष के कारण वह हमसे जबरन राज्य छीन कर राज्यवृद्धि करना चाहता है ? बराबरी के भाइयों में यह स्पर्धा ठीक नहीं । हम जिस पिता के पुत्र हैं, वह भी उन्हीं का पुत्र है । अत: संदेशवाहक दूत ! आप अपने स्वामी से कह देना -- 'पिताजी के कहे बिना अपने सहोदर बड़े भाई के साथ हम युद्ध तो करेंगे नहीं; लेकिन हम अपना अपमान सहन नही करेंगे ?" यों कह कर वे ६८ भाई श्री ऋषभदेव मगवाद के पास आये और नमस्कार करके भरत ने दूत द्वारा जो संदेश भिजवाया था, उसके बारे में निवेदन करके कहा कि 'पिताजी ! राज्य हमें आपने दिया है; आपका दिया हुआ राज्य भरत को हम कैसे सौप दें ? आगे आप जैसा भी मार्गदर्शन करेंगे, तदनुसार आपकी आज्ञा का पालन