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इसलिये अन्तमें तो आमाको मोक्ष देनेवाली आत्मा ही है . . .
. इस शुद्ध सत्यका निरूपण रायचन्द माईने अनेक प्रकारोंसे अपने लेखोंमें किया है। 'रायचन्द भाईने बहुतसी धर्मपुस्तकोंका अच्छा अभ्यास किया था। उन्हें संस्कृत और मागधी भाषा समझने में जरा भी मुश्किल न पड़ती थी। उन्होंने वेदान्तका अभ्यास किया था, इसी प्रकार भागवत और माताजीका भी उन्होंने अभ्यास किया था। जैन पुस्तकें तो जितनी भी उनके हाथों जाती, वे बाँच जाते थे। उनके बाँचने और ग्रहण करनेकी शक्ति अगाध थी। पुस्तकका एक बारका बाँचन उन पुस्तकोंके रहस्य जानने के लिये उन्हें काफी था। कुगन, जंदभवेस्ता आदि पुस्तकें भी वे अनुवादके जरिये पद गये थे।
वे मुझसे कहते थे कि उनका पक्षपात जैनधर्मकी ओर था। उनकी मान्यता थी कि जिनागममें आत्मज्ञानकी पराकाष्ठा है, मुझे उनका यह विचार बता देना आवश्यक है। इस विषयमें अपना मत देनेके लिये मैं अपनेको बिलकुल अनधिकारी समझता हूँ। . परन्तु रायचंद भाईका दूसरे धर्मों के प्रति अनादर न था, बल्कि वेदांतके प्रति पक्षपात भी था । वेदांतीको तो कवि वेदांती ही मालूम पड़ते थे। मेरी साथ चर्चा करते समय मुझे उन्होंने कभी भी यह नहीं कहा कि मुझे मोक्षप्राप्तिके लिये किसी खास धर्मका अवलंबन लेना चाहिये । मुझे अपना ही आचार विचार पालनेके लिये उन्होंने कहा । मुझे कौनसी पुस्तकें बाँचनी चाहिये, यह प्रश्न उठनेपर, उन्होंने मेरी वृत्ति और मेरे बचपनके संस्कार देखकर मुझे गीताजी बाँचनेके लिये उत्तेजित किया; और दूसरी पुस्तकोंमें पंचीकरण, मणि
लमाला, योगवासिष्ठका वैराग्य प्रकरण, काव्यदोहन पहला भाग, और अपनी मोक्षमाला पाचने लिये कहा।
रायचंद भाई बहुत बार कहा करते थे कि भिन्न भिन्न धर्म तो एक तरहके बाड़े हैं, और उनमें मनुष्य घिर जाता है। जिसने मोक्षप्राप्ति ही पुरुषार्थ मान लिया है, उसे अपने मायेपर किसी भी धर्मका तिलक लगानेकी आवश्यकता नहीं। .. . सूतर. आवे त्यम तुं रहे, ज्यम त्यम करिने हरीने लहे
का जैसे अखाका यह सूत्र था वैसे ही रायचंद भाईका भी था । धार्मिक झगडोंसे थे हमेशा ऊचे रहते थे-उनमें वे शायद ही कभी पड़ते थे। वे समस्त धर्मोकी खूबियाँ पूरी तरहसे देखते और उन्हें उन धर्मावलम्बियोंके सामने रखते थे। दक्षिण आफ्रिकाके पत्रव्यवहार भी मैंने यही वस्तु उनसे प्राप्त की।
में स्वयं तो यह माननेवाला हूँ कि समस्त धर्म उस धर्मके भक्तोंकी दृष्टिसे सम्पूर्ण है, और दूसरोंकी रहिसे अपूर्ण है। स्वतंत्ररूपसे विचार करनेसे सब धर्म पूर्णापूर्ण हैं। अमुक हदके बाद सब शास बंधनरूप मालूम पड़ते हैं। परन्तु यह तो गुणातीतकी अवस्था आई। रायचंद भाईकी दृष्टिसे विचार करते हैं तो किसीको अपना धर्म छोदनेकी आवश्यकता
सब अपने अपने धर्ममें रहकर अपनी स्वतंत्रता-मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि प्राप्त करनेका अर्थ सर्वाशसे राग द्वेष रहित होना ही है। . .... ..
मोहनदास करमचंद गांधी