________________
सम्यक्त्व के लाभ के प्रकार
सम्यक्त्व प्रकरणम् 'वीरम्' - परीषह उपसर्गों को सहन करने में इन्द्रों के चित्त को अनुरक्त बनानेवाले वीर नाम के चौबीसवें तीर्थंकर को प्रणाम करता हूँ।
'वुच्छतुच्छमईणं' - तुच्छ बुद्धि मंद बुद्धिवालों के लिए कहूँगा अर्थात् गुरुतर शास्त्र के बोध में असमर्थ बुद्धि को तुच्छ मति कहा गया है। ऐसी मति जिनकी है उनके उपकार के लिए कहूँगा। 'अणुग्गहत्थं' - उपकार के लिए। _ 'सम्मत्थभव्वाणं' - समस्त भव्यों के लिए या समर्थ भव्यों के लिए। अर्थात् मुक्ति-मंजिल को प्राप्त करने की योग्यता वालों के लिए तो उपकाररूप है, पर जिनमें मोक्ष जाने की योग्यता नहीं है, उन अभवी जीवों के लिए यह वृत्ति उपकाररूप नहीं है। अतः समस्त भवीजनों के लिए उपकार रूप है। समस्त शब्द के ग्रहण से भव्यों के प्रति सामान्यता दर्शायी गयी है अथवा समर्थ भव्य धर्मोपदेश-अनुग्रह के अधिकारी होते हैं। कहा भी गया है
होई समत्थो धम्मं कुणमाणो, जो न बीहइ परेसिं। माइपिउसामिगुरुमाइयाण, धम्माऽणभिन्नाणं ॥१॥ (श्रावक धर्मविधि-गाथा ५)
धर्म से अनभिज्ञ माता-पिता-स्वामी-गुरु आदि के द्वारा धर्म में रूकावटें उत्पन्न किये जाने पर भी धर्म का निर्वाह करता हुआ जो दूसरों से नहीं डरता है, वही समर्थ होता है।
'सम्मत्तस्स सरुवंति'-देव तत्त्व आदि के श्रद्धानरूप सम्यक्त्व के स्वरूप को, 'संखेवेणं' संक्षेप में, 'निसामेह'-सुनो ॥१-२॥
जो संक्षेप में कहा गया, अब उसकी उपपत्ति को कहते हैंसुयसायरो अपारो आउं थोअं जिआ य दुम्मेहा। तं किं पि सिक्खियव्यं, जं कज्जकरं च थोयं च ॥३॥ सिद्धांत-समुद्र महत्त्व की अपेक्षा से, दृष्टि से परे है अर्थात् अपार है, जीवन थोड़ा है, जीवों की बुद्धि अल्प
कहने का तात्पर्य यह है कि कुण्ठित बुद्धिवाले भी जीव आयुष्य छोटा होने पर तथा सिद्धान्त अपार होने पर भी सिद्धान्त को पढ़े अर्थात् कुछ भी सीखना चाहिए, पढ़ना चाहिए, जो कि इसलोक और परलोक के लिए कार्यकारी हो, प्रयोजन को सिद्ध करनेवाला हो और थोड़ा भी हो। इस गाथा में दो 'च' का उपयोग समान योग में किया गया है। ये दोनों 'च' दोनों विशेषणों की समकक्षता को द्योतित करते हैं ।।३।।
___ यहाँ सम्यक्त्व प्रकरण छोटा भी है और कार्यकारी भी है। अतः पढ़ना ही चाहिए। उस सम्यक्त्व के लाभ के प्रकार को कहते हैं
मिच्छत्तमहामोहंधयारमूढाण इत्थ जीवाणं।
पुण्णेहिं कह वि जायइ दुल्लहो सम्मत्तपरिणामो ॥४॥ मिथ्यात्व कठिनाई से छेदे जाने के कारण 'महा' शब्द से परिलक्षित है। मिथ्यात्व मोहनीय को अंधकार की संज्ञा दी गयी है क्योंकि सत्य-दर्शन का तिरोधायक होने से मिथ्यात्व अंधकार ही है। 'मूढाण' अर्थात् विवेक रहित प्राणियों का 'इत्थ' (एत्थ) यहाँ संसार में, 'पुण्णेहिं' पुण्य-कारणों द्वारा अर्थात् शुभ अध्यवसायों के द्वारा, 'कह वि' किसी भी प्रकार से 'जायइ' उत्पन्न होता है, 'दुल्लहो सम्मत्त परिणामो' सम्यक्त्व का परिणाम दुर्लभ
___ कहने का तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व मोहनीय के अंधकार से मूद जीवों को शुभ भावों द्वारा ग्रन्थि आदि भेदन के द्वारा अति दुर्लभ सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति कैसे होती है - यह उदायन राजा की कथा से ज्ञात होता है।
जिसका सम्यक्त्व परिणाम अति दुर्लभ था। वह उदायन राजा कौन था? उसे दुर्लभ समकित रत्न कैसे प्राप्त
-
3