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आचार्य के छत्तीस गुण
सम्यक्त्व प्रकरणम्
इसमें आचार विनय के पुनः चार भेद हैं- संयम - समाचारी, तप समाचारी, गण समाचारी तथा एकाकीविहार
समाचार |
पृथ्वीकाय की रक्षा आदि सतरह संयम स्थानों में करना, कराना तथा करते हुए को स्थिर करना - इस प्रकार की यतना की वृद्धि करना संयम समाचारी है।
पाक्षिक, अष्टमी, चतुर्दशी आदि में बारह प्रकार के तप में स्व-पर का व्यापार करना, करवाना तप समाचारी है। यहाँ पाक्षिक शब्द टीकाकार के पौर्णमिक गच्छ का सूचक है।
प्रत्युपेक्षणादि में बाल, ग्लान आदि वैयावृत्य के स्थानों में, विषाद प्राप्त गण के प्रवर्त्तन आदि में स्वयं उद्यमवान् स्वभाव वाला होना गण समाचारी है।
एकाकी विहार प्रतिमा को स्वयं अंगीकार करना तथा दूसरों से करवाना एकाकी विहार समाचारी है।
श्रुत विनय भी चार प्रकार का है - १. सूत्र ग्रहण करना, २. अर्थ का श्रवण करवाना, ३. हितकारी वाचना देना, ४. संपूर्ण वाचना देना । यहाँ हित का अर्थ योग्यतानुसार है। निःशेष अर्थात् अपरिसमाप्ति तक वाचना देना ।
विक्षेपण विनय भी चार प्रकार का है - १. मिथ्यात्व विक्षेपण से मिथ्यादृष्टि की स्व सिद्धान्त में स्थापना करना। २. सम्यग् दृष्टि का तो आरम्भ विक्षेपण से चारित्र - अध्यासन करवाना। ३. धर्म से च्युत की धर्म में स्थापना करना । ४. चारित्र स्वीकार करने के बाद स्व अथवा पर को अनेषणीय आदि दोषों से निवारित कर हित के लिए अभ्युत्थान करना- यह लक्षण है।
दोषनिर्घात विषय विनय भी चार प्रकार का है - १. क्रुध का क्रोध हटाना। २. दूषित विषय आदि दोषवान् के दोषों को हटाना। ३. पर - सिद्धान्त में कांक्षा रखने वाले की कांक्षा का छेद करना । ४. उक्त दोषों से रहित आत्मा का स्वतः प्रणिधान करना ।
इस प्रकार स्वयं को तथा पर को विनय की ओर ले जाना विनय है - यह दिशामात्र सूचन है । विशेष रूप सेतो व्यवहार - भाष्य आदि से जानना चाहिए। ये सभी मिलकर छत्तीस गुण गणी के होते हैं ।। २९ ।। १४३ ।। तथा - द्वितीय ३६ गुण
वयछक्काई अट्ठारसेय आयारवाड़ अट्ठेय ।
पायच्छित्तं दसहा सूरिगुणा हुंति छत्तीसं ॥३०॥ (१४४)
व्रत षट्क आदि अठारह पूर्व में कहे गये हैं। आचारत्व आदि आठ तथा अपराध होने पर सम्यक् प्रायश्चित का ज्ञान आदि दस प्रकार का है। इस प्रकार ये छत्तीस गुण आचार्य के कहे गये हैं। यहाँ भावप्रत्यय का लोप होने से आचारत्व आदि आठ ही कहे गये हैं।
वे इस प्रकार हैं.
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आयारव-मवहारव-ववहारु- व्वीलए पकुव्वी य ।
निज्जव - अवायदंसी- अपरिस्सावी य बोधव्वे ॥१॥
इनका अर्थ इस प्रकार है- आचारवान् - पाँच प्रकार के आचार से तथा ज्ञान- आसेवा से युक्त यह गुण रूप से श्रद्धेय वाक्य होता है।
अवधार - आलोचक द्वारा कहे हुए अपराधों का अवधारण करना। क्योंकि वही सभी अपराधों में यथावत् शुद्धि-दान में समर्थ होता है।
व्यवहारवान् आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा व जीत लक्षण वाला पाँच प्रकार का व्यवहार अभिन्न रूप से कहा गया है। वह भी यथावत् शुद्धि करने में समर्थ है।
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