Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 326
________________ विशुद्धि रूप गुणस्थान सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्बन्धित अध्यवसाय स्थानों की निवृत्ति भिन्न होती है, क्योंकि अध्यवसाय स्थान में रहने वाले भिन्न होते हैं। इसमें कर्मों की स्थिती घात, रसघात आदि अपूर्व ही किया जाता है, अतः इसे अपूर्वकरण गुणस्थान भी कहा जाता है। पूर्व के गुणस्थानों में जो स्थितीखण्ड और रसखण्ड आदि का घात किया जाता है। उससे इस गुणस्थान में घात और ज्यादा होता है। विशुद्धि के कारण अपवर्तना करण से उपरितन स्थिती से उतरकर उदय क्षण के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल में क्षपणीय कर्म दलिकों की प्रति समय में असंख्य गुणा वृद्धि से गुणश्रेणि रचना होती है। वह गुणश्रेणि रचना पूर्व काल से बड़ी तथा अपवर्तित स्वल्प दलिकों को रचती है। इसमें काल से तो कम अपवर्तित और अधिक दलिकों को रचती है। शुभ प्रकृतियों में अशुभ प्रकृति रूप दलिकों को विशुद्धि के वश से प्रतिसमय में असंख्यगुणी वृद्धि से ले जाया जाता है। गुण संक्रमण को भी यहाँ अपूर्व रूप से किया जाता है। स्थितीबन्ध पूर्व में दीर्घ किया हुआ होता है, पर यहाँ तो ह्रस्व ही किया जाता है। उपशम व क्षय योग्य दलिकों को करने के कारण उपशमक व क्षपक कहा जाता है। ९. अनिवृत्ति - एक साथ प्रतिपन्न जीवों के परस्पर अध्यवसायों की व्यावृत्ति नहीं होती, क्योंकि प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा एक-एक अध्यवसाय स्थान होता है। सूक्ष्म संपराय की अपेक्षा से इसमें बादर सम्पराय होता है। बादर सम्पराय की अनिवृत्ति के कारण इसे अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान कहा जाता १०. सूक्ष्म संपराय - जिसके कारण चारों ओर से जीव संसार में भ्रमण करता है, वह सम्पराय अर्थात् कषाय है। इसमें शेष कषायों का अनुदय होने से सूक्ष्म यानि किट्टी भूत लोभ नामक सम्पराय जिसमें है, वह सूक्ष्म संपराय गुणस्थान कहलाता है। ११. उपशान्त मोह - उपशान्त की तरह ही करण विशेष से भस्म से आच्छादित अग्नि के समान उदय के अयोग्य मोह जिसका है, वह उपशांत मोह है। १२. क्षीणमोह - यह क्षपक श्रेणी से आगे तथा कैवल्य की उत्पत्ति के पूर्व तक होने वाला परिणाम है। १३. सयोगी केवली - मन, वचन, काया के योग से युक्त केवली को यह गुणस्थान होता है। काया से केवली चलते हैं। वचन से देशना देते हैं। "अमनस्काः केवलिनः" इस वचन से केवली के सर्वथा मनोयोग नहीं होता - ऐसा नहीं है। कहा गया है - दव्वमणोजोगेणं मणनाणीणं अणुत्तरसुराण । संसयवुच्छित्तिं केवलेण नाऊण सय कुणइ ।। अर्थात् अनुत्तर विमानवासी देवों द्वारा मन से प्रश्न पूछे जाने पर कैवल्य ज्ञान से जानकर उनके संशय का व्यवच्छेद करने के लिए द्रव्य मनोयोग से स्वयं मन द्वारा उत्तर देते हैं। केवलज्ञानी को भाव मन नहीं होता। १४. अयोगी केवली - योग का सर्वथा निरोध होने से चौदहवाँ गुणस्थान अयोगी केवली कहलाता है। इन गुणि रूप से इनका कथन गुण व गुणी के अभेद-उपचार की अपेक्षा से किया गया है। ये ज्ञानादि के स्थान, गुणों के स्थान चौदह होने से चौदह गुणस्थान कहे गये हैं। यह अनुक्त होने पर भी प्रस्ताव से जान लेना चाहिए। इनका कालमान इस प्रकार है - मिच्छत्तमभव्वाणं अणाइयमणंतयं मुणेयव्वं । भव्वाणं तु अणाइ सपज्जवसियं च तं होइ ॥१॥ छावलियं सासाणं समहिअ तेतीससागर चउत्थं । देसूणपुव्वकोडी पंचमगं तेरसं च पुढो ॥२॥ 277

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