________________
सम्यक्त्व प्रकरणम्
सम्प्रति राजा की कथा तरह अपने ही स्थान पर बैठे रहे। राजा के आने पर उसे धर्म का कथन किया। फिर ईर्यासमिति पूर्वक समता से वासित चित्त द्वारा वापस चले गये। तब चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से कहा - राजन्! देखो। यहाँ पर लोष्टचूर्ण पर मुनियों के एक भी पाँव का निशान नहीं है। ये वास्तव में जितेन्द्रिय हैं, अतः यहाँ आकर स्त्रियों को नहीं देखा। ये स्त्रियों को तृणवत् मानकर त्याग देते हैं। ये तो केवल सिद्धि रूपी लक्ष्मी के संग के अभिलाषी हैं। तब चन्द्रगुप्त की सुसाधुओं में परम दृढ़ भक्ति हुई। शुद्ध समाचरण को देखकर वह परम आहेत बन गया।
__ एक बार चाणक्य ने विचार किया कि उन दोनों क्षुल्लकों की तरह कोई अदृश्य रूप से आकर राजा को विष दे देगा, तो ठीक नहीं होगा। इस प्रकार विचारकर वह राजा को सहन करने योग्य विषमिश्रित चावल रोज खिलाने लगा। रानी महादेवी धारिणी उस समय गर्भवती थी। उसे राजा के साथ एक ही थाल में जीमने का दोहद उत्पन्न हुआ। उस दोहद की पूर्ति न होने से वह राशि-लेखा की तरह दुर्बल होती गयी। उसे इस प्रकार देखकर राजा ने पूछा - क्या तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं होती या तुम्हारी आज्ञा कोई खण्डित करता है? तुम क्यों व किससे अभिभूत हो, जिससे कि हे देवी! तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो। रानी ने कहा - आपने जो कुछ भी कहा, उसमें से कोई भी कारण मेरी कृशता का नहीं है। हे देव! आपके साथ एक ही थाल में जीमने का मुझे दोहद उत्पन्न हुआ है। राजा ने कहा - देवी! आश्वस्त हो जाओ। मैं स्वयं इस दोहद की पूर्ति करुंगा। दूसरे दिन अपने साथ भोजन करने के लिए राजा ने उसे बुलाया। चाणक्य ने कहा - वत्स! रानी को तुम अपना भोजन मत देना, क्योंकि तुम्हारा य
र विष भावित है। फिर भी प्रतिदिन राजा मौका खोजने लगा। एक दिन चाणक्य के आने से पहले ही रानी को एक कवल दे दिया। रानी ने जैसे ही खाया कि तुरन्त वहाँ चाणक्य आ गया। उसे स्वाद पूर्वक खाते देखकर ग्लानि पूर्वक कहा - खुद की वैरिणी! यह तुमने क्या किया। सर्वनाश के समुत्पन्न होने पर पंडित आधे का त्याग करता है। दोनों ही विष से मृत्यु को प्राप्त हो जावें, इससे पहले में एक को बचा लेता हूँ। इस प्रकार कहते हुए चाणक्य ने अपनी छुरी से रानी के पेट को चीरकर पर्वत की भूमि से रत्न निकालने के समान पुत्ररत्न को पेट में से खींच लिया। गर्भ के जितने दिन बाकी थे, उतने दिन बच्चे को घृत आदि में रखकर पूर्ण किया। फिर उसकी माता धारिणी का मृतकार्य आदि कराया। जहर मिश्रित भोजन करती हुई माता के द्वारा एक बिन्दु उसके सिर पर गिर गया, जिससे ऊषर भूमि में धान न उगने के समान सिर के उस प्रदेश में केश नहीं उगे। अतएव उसका नाम बिन्दुसार पड़ गया। चन्द्रगुप्त राजा के मरने के बाद बिन्दुसार राजा बना। अपने प्रताप से वह ऊष्ण सूर्य की तरह प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होने लगा। ___धात्री के द्वारा माता की तरह नित्य ही बार-बार शिक्षा दिये जाने से चाणक्य को दूसरे चन्द्रगुप्त की तरह आराधने लगा। एकबार नन्द-मन्त्री सुबन्धु ने राजा को एकान्त में कहा कि देव! आपने मुझे मन्त्री रूप से यद्यपि स्थापित नहीं किया है, फिर भी मैं आपके लिए कुछ करुंगा। स्वामिन्! यद्यपि मेरी वाणी की कोई कीमत नहीं है। फिर भी इस पट्ट के हित को कहने के लिए मेरी जिह्वा में खुजली हो रही है। यह जो आपका मन्त्री चाणक्य है, वह अत्यन्त निर्दयी है। इसने आपकी माता के पेट को चीरकर उसे मार डाला था। अतः हे राजन्! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करना। राजा ने जब उससे पुर्ण वार्ता पूछी, तो उसने भी बताया कि इस प्रकार हुआ।
तब वह अत्यन्त क्रोधित हुआ। चाणक्य के आने पर भी वह उससे पराङ्मुख हुआ। खल प्रवेश जानकर चाणक्य भी घर चला गया। इस शिशु को समझाकर विश्वास दिलाने से अब क्या होनेवाला है? मेरा मर जाना ही ठीक है। पर क्या अशुभ मौत मरूँ? इस प्रकार विचारकर राज्य-आकांक्षा का त्याग करके अपने संपूर्ण धन को चाणक्य ने सप्त क्षेत्रों में सुबीज की तरह बो दिया। फिर इष्ट-स्वजन आदि पर औचित्य-उपकार करके, अनाथ, दीन-दुखियों को अनुकम्पा दान देकर चतुर्थ बुद्धि से विचार करके राजा के प्रतिकारसामर्थ्य से युक्त पत्रक व
300