Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 372
________________ सम्यक्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् चंद दम-पवर हरि-सूर-रिद्धि-पयनियह-पढमबन्नेहिं । जेसिं नाम तेहिं परोययारंमि निरएहिं ॥६०॥ (२६६) ईय पायं पुव्यायरिय-रइय गाहाण संगहो एसो । विहिओ अणुगहत्थं कुमग्गलग्गाण जीयाणं ॥६१॥ (२६७) प्रथम वर्ण वाले, उत्तम ऐश्वर्य गुणो से युक्त, रिद्धि प्राप्त, सूर्य के समान तेजस्वी, श्रेष्ठ ईश्वर के समान श्री चन्द्रप्रभसूरि, जो परोपकार में निरत हैं, उनके द्वारा यह पूर्व आचार्य द्वारा रचित गाथाओं के पाद का संग्रह है, जो कि कुमार्ग में लगे हुए जीवों के अनुग्रह के लिए लिखा गया है।।६०-६१।।२६६-२६७।। और भी - जे मज्झत्था धम्मत्थिणो य जेसिं च आगमे दिट्ठी । तेसिं उदयारकरो एसो न उ संकिलिट्ठाणं ॥६२॥ (२६८) जो मध्यस्थ धर्मार्थी है, जिनकी आगम में दृष्टि हैं, उन्हीं के उपकार के लिए यह ग्रन्थ है, किन्तु संक्लिष्ट मति वाले लोगों के लिए यह नहीं है।।६२।।२६८।।। अब इस प्रकरण की महत्ता को बताने के लिए नामों को कहते हैं - उदएसरयणकोसं, संदेहविसोसहिं व वीउसजणा । अहया वि पंचरयणं दसणसुद्धिं इमं भणह ॥६३॥ (२६९) उपदेश रत्न कोष, संदेह विष - औषधि रत्नों के समान दुष्प्राप्य अथवा देव-धर्म-मार्ग-साधु-तत्त्व लक्षण रूप ये पाँच रत्न दर्शन-सम्यक्त्व की शुद्धि के हेतु होने से शुद्धि रूप है - इन्हीं को विद्वद्जनों ने कहा है।।६३२६९।। अब इनके स्वरूप निरूपण पूर्वक भव्यों को पठन आदि का उपदेश देते हैं - मिच्छमहन्नयतारणतरियं आगमसमुद्दबिंदुसमं । कुग्गाहग्गहमंत्तं संदेहविसोसहिं परमं ॥६४॥ (२७०) एयं दंसणशुद्धिं सब्वे भव्या पढंतु निसुणंतु । जाणंतु कुणंतु लहंतु सियसुहं सासयं उझत्ति ॥६५॥ (२७१) मिथ्यात्व रूपी महार्णव से तारनेवाली नौका, आगमसमुद्र में बिंदु के समान, कुग्रह से ग्रसित के लिए मंत्र रूप, सन्देह-विष की परम-प्रकृष्ट औषधि है। पूर्व में इसका सिर्फ नाम ही ग्रहण किया गया था। अब विशेषण रूप से कहा गया है। अतः पुनरुक्ति दोष नहीं होता।।६४।२७०॥ इस दर्शनविशुद्धि रूप सम्यक्त्व को सभी भव्य सूत्र रूप से पढ़कर, अर्थरूप से श्रवण करें। सुनकर उसका अर्थ जानें, जानकर उसे आचरण में लाये, अनुष्टान करके शाश्वत शिव-सुख को शीघ्र ही प्राप्त करें, क्योंकि सर्व अनुष्ठानों का प्रयोजन मुक्ति ही है।।६५।।२७१।। || श्री ॥ इस प्रकार पूज्य श्री चक्रेश्वर सूरि द्वारा प्रारंभ तथा उनके प्रशिष्य श्री तिलकाचार्य द्वारा निर्वाहित "सम्यक्त्ववृत्ति" में समर्थित पाँचवां तत्त्व-तत्त्व पूर्ण हुआ और इसी की पूर्णता के साथ सम्यक्त्वप्रकरण-वृत्ति का अनुवाद पूर्ण हुआ। || श्री ॥ 323

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