Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 370
________________ सम्यक्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् निरपाय गति होगी। अन्धे ने भी पंगु द्वारा उक्त कथन को युक्त मानते हुए शीघ्र ही वैसा ही किया, क्योंकि - स्म प्राणभीमहती हि भीः। प्राण-भय सबसे बड़ा भय है। इस प्रकार एक होकर दोनों ने ईप्सित स्थान को प्राप्त किया। इसी तरह दर्शन व चारित्र युक्त होने पर शिव पद प्राप्त होता है। व्यतिरेक तो इस प्रकार है - किसी नगर में लंकादाह के प्रकाश को करते हुए की तरह चारों ओर प्रदीपन हो गया। तब सभी लोग हाहाकर की ध्वनि करते हुए शीघ्रता से भागने लगे। उस समय महान कष्ट के आ पड़ने पर प्राणमात्र धन ही सबसे बड़ा धन हो गया। उस नगर में एक अन्धा व एक पंग अनाथ हो गये। स्वयं वे नगरी के बाहर जाने में असमर्थ थे और कोई भी उन्हें नगरी के बाहर लेकर नहीं गया। पंगु अपने निकलने के मार्ग को देखता हुआ भी गमनक्रिया से शून्य होने से भस्मीभूत हो गया। अंधा तो प्राणों की रक्षा के लिए इधर उधर दौंड़ने लगा। अग्नि को नहीं देख पाने के कारण उसीके कोटर में प्रवेश कर गया। इस प्रकार अंधा व पँगु, दोनों का साथ न होने से दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हुए। इसी प्रकार दर्शन व चारित्र का साथ न होने पर वे दोनों अलग-अलग होने से सिद्धि-दायी नहीं होते।।५६।।२६२।। अब चरण-करण के स्वरूप को कहते हैं - ययसमणधम्म संजम-येयावच्वं बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव-कोह-निग्गहा इई चरणमेयं ॥५७॥ (२६३) पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इंदिय निरोहो । पडिलेहणगुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥५८॥ (२६४) व्रत-प्राणिवध से विरति आदि, पाँच प्रकार के हैं। श्रमण धर्म शान्ति आदि दस है। संयम पृथ्वी आदि का संरक्षण आदि है। जैसे - पुढवीदग अगणि मारुय वणसइ बि ति चउ पणिंदि अजीवे । पेहुप्पेह पमज्जण परिठवण मणोवईकाए ॥११॥ (दशवै. का. नि. ४६) पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा, वनस्पति, बेइंद्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचिन्द्रिय, अजीव में प्रेक्षा, उत्प्रेक्षा, प्रमार्जना व परिस्थापना मन वचन काय से करे। वैयावृत्य-आचार्य आदि की दस प्रकार से है। जैसे - आयरिय उवज्झाए थेर तवस्सी गिलाए सेहाण । साहम्मिअकुलगणसंघसंगयं तमिह कायव्वं ॥१॥ आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्षक, साधर्मिक, कुल,गण, संघ की सेवा वैयावृत्य करे। ब्रह्मगुप्ति नौ प्रकार की है। जैसे - वसहिकहनिसिज्जइंदिय कुडुंतर पुव्वकीलियपणीए । अइमायाहारविभूसणा य नव बंभगुत्तीऊ ॥१।। (प्रव. सा. ५५७) स्त्री-पशु-पंडक सहित वसति भोगना, स्त्री कथा करना, कोमल निषद्या का उपभोग करना, इन्द्रिय अनुकूल विषयों पर राग रखना, भीत की आड़ में काम उत्पादक कथा आदि सुनना, पूर्व क्रीडित कामभोग को याद करना, सरस स्निग्ध घृत आदि आहार करना, अति मात्रा में आहार करना, शरीर की विभूषा करना - ये नौ कार्य न करना। ये नव वाड ब्रह्मचर्य की है। 321

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