Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 368
________________ सम्यक्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् कह तं भन्नइ सुक्खं सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लियइ । जं च मरणावसाणे, भव संसाराणुबंधि च। (उपदेशमाला गा. ३०) अर्थात् सुचिर काल से भी प्राप्त उसे सुख कैसे कहा जा सकता है, जिसमें दुःख मिला हुआ है और जिसके अवसान में मरण है तथा जो भव-संसार का अनुबंधी है।।५०।।२५६।। तथा - नारय-तिरिय-नरामरभवेसु निव्वेयओ वसई दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्त विसवेगरहिओ वि ॥५१॥ (२५७) नारक आदि भवों में विषयों में निर्वेद से अर्थात् वैराग्य के वश से ममत्व ही विष है। उसकी वेग रूपी लहरों से रहित होते हुए भी, धन-स्वजन-शरीर आदि में आत्मीयत्व का अभिमान छोड़ देने पर भी चारित्र मोहनीय के वश से जिसने प्रकृष्ट पर लोक के अर्थात् सिद्धि क्षेत्र रूपी मार्ग यानि चारित्र को नहीं किया है, वह अकृत परलोक मार्गी है। वह चारित्र को प्राप्त नहीं करने से कष्ट से दुःख ही पाता है, दुःख में ही रहता है।।५१।।२५७।। तथा - दट्ठण पाणिनियहं भीमे भवसायरंमि दुक्खत्तं । अविसेसऊणुकंपं दुहावि सामत्थउ कुणइ ॥५२॥ (२५८) धीर संसार सागर में दुःख से आर्त्त प्राणियों के समूह को देखकर अविशेषतः अर्थात् स्व-पर के भेद भाव के बिना सामान्य रूप से दोनों ही प्रकार की अनुकम्पा सामर्थ्य से अर्थात् अपनी शक्ति अनुसार करता है। यहाँ अनुकम्पा दो प्रकार की बतायी गयी है - द्रव्य से तो बाह्य आपदा का प्रतीकार करना तथा भाव से आई हृदय से प्रतिबोधित कर-कर के अपनी सामर्थ्यानुसार सन्मार्ग प्राप्त करने तक प्रयत्न करना।।५२।।२५८।। तथा - मन्नइ तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पन्नत्तं । सुहपरिणामे सम्म कंखाइ विसुत्तियारहिओ ॥५३॥ (२५९) जिनेश्वरों द्वारा जो कुछ भी प्रज्ञप्त है, उसी को सम्यक् सत्य अविसंवादि, निःशंक अर्थात् निःसन्देह मानता है। वह शुभ परिणामवाला अर्थात् आस्तिक्य लक्षण से युक्त कांक्षा आदि विस्रोतसिका, चित्तविप्लुतता आदि से रहित होता है।।५३।।२५९।। अब प्रकृत विषय का निगमन करते हुए सम्यक्त्व का फल कहते हैं - एवंविहपरिणामो सम्मदिट्ठी जिणेहिं पन्नत्तो । एसो उ भवसमुदं लंघड़ थोवेण कालेण ॥५४॥ (२६०) जिसका इस प्रकार का उपशा आदि रूप परिणाम है, वह सम्यग्दृष्टि जिनेश्वर के द्वारा प्रज्ञप्त है। यही थोड़े से समय के बाद भवसागर को पार करता है। आगम में भी कहा है - उक्कोसदसणेणं भंते कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्जिज्जा । गोयमा! उक्कोसेणं तेणेव तओमुक्के तइयं नाइक्कमइ त्ति ॥ हे भगवन्! उत्कृष्ट दर्शनी कितने भव ग्रहण करने से सिद्ध होता है? हे गौतम! उत्कृष्ट दर्शनी या तो उसी भव में या फिर तीसरे भव में सिद्ध होता है। तीसरे भव का अतिक्रमण 319

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