Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 369
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नहीं करता । । ५४ ।। २६०|| - इस प्रकार मोक्ष के हेतु सम्यक्त्व को कहा गया, पर वह सम्यक्त्व विरति के साथ जानना चाहिए | अविरत सम्यग्दृष्टि के तो निकाचित कर्मक्षय करने वाली तपस्या भी असार है। इसी को आगे बताया जा रहा है सम्मदिट्ठिस्सवि अविरयस्स न तवो बहुफलो होड़ हवइ हु हत्थिन्हाणं चुंदं च्छिययं व तं तस्स ॥५५॥ (२६१) मिथ्यादृष्टि तपस्वी में तो तामलि के दृष्टान्त से असारता ज्ञात होती ही है - यह प्रसिद्ध ही है। अविरत सम्यग्दृष्टि का तप भी बहुत फल वाला नहीं होता। मोक्षफल प्राप्त नहीं होता। उनका तप हाथी के स्नान के समान होता है। जैसे हाथी नहाकर पुनः अपने अंगों पर धूल डाल लेता है। इसी प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि भी तप के द्वारा कर्म खपाकर पुनः अविरति द्वारा कर्म बाँध लेता है। दूसरा दृष्टान्त छीलने के उपकरण का है । जैसे- बढ़ई इस उपकरण को हाथ से खींचता है। जब यह बायें हाथ से खींचता है तो दाहिने हाथ से इसे ढक देता है और दायीं ओर खींचता है, तो बायें से ढक लेता है। इसी प्रकार एक तरफ तप से कर्म को क्षपित करता है, तो दूसरी तरफ अविरति से बाँध भी लेता है ।। ५५ ।। २६१।। इसी अर्थ को उदाहरण द्वारा समर्थित करते हैं. - चरणकरणेहिं रहिओ न सिज्जइ सुटुसम्मदिट्ठी वि - जेणागमंमि सिद्धो रहंधपंगूणदिट्टंतो ॥५६॥ ( २६२) चरण-करण से रहित श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि भी सिद्ध नहीं होता। रथ व अंधे-पंगु के दृष्टान्त से आगम में भी यह सिद्ध है। संजोग सिद्धि फलं वयंति न हु एगचक्केण रहो पयाइ । संयोग व सिद्धि से ही फल कहा गया है, क्योंकि एक चक्के से रथ प्रवर्तित नहीं होता । जैसे- अन्धे व पंगु का दृष्टान्त । इसमें अन्वय तो इस प्रकार है - सम्यक्त्व अन्धो य पंगूय वणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥१॥ ( आव. नि. गा. १०२ ) अर्थात् अंधा व पंगु दोनों वन में आमने सामने हुए। फिर दोनों ने साथ मिलकर नगर प्रवेश किया। व्यतिरेक इस प्रकार है पातो पंगुलो ड्डो धावमाणो य अंधओ । पंगु की दृष्टि से व अंधे द्वारा दौड़ने से बलते हुए वन से बाहर आ गये। सम्प्रदाय गम्य तो इस प्रकार है । जैसे किसी नगर के लोगों ने किसी अजेय वैरी के आतंक की शंका से जंगल में शरण ले ली। दूसरे दिन पुनः वहाँ भी हमले के भय से आतुर शकट आदि को छोड़ अपने-अपने प्राण लेकर वहाँ से भाग गये। वहाँ पर दो निराश्रय पुरुष, एक अंधा व एक पंगु वहीं रह गये, क्योंकि निःसत्त्व को कहाँ भय होता है। छापामार सैनिकों द्वारा लूट-लूट 'कर चले जाने के बाद कल्पान्त अग्नि की तरह दावानल भभक उठा । दावानल की तरफ भागते हुए अन्धे को देखकर लंगड़े ने कहा- जीने की इच्छा है या मरने की इच्छा है, जो कि दावानल की ओर जा रहे हो । उसने कहा तो ही बताओ कि जीवित रहने के लिए किधर जाऊँ? क्योंकि हे भद्र! 320 तुम आकर्षयान्मुखान्मृत्योः प्राणदानं ह्यनुत्तरम् । मृत्यु के मुख से खींचकर प्राणदान देना अनुत्तर दान है। तब उस पंगु ने अंधे से कहा - आओ ! मुझे अपने कन्धे पर बिठा लो। जिससे मेरे द्वारा दृष्ट मार्ग से तुम्हारी

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