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भवदत्त की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
करने के लिए तैयार किया गया। आगे-आगे डिण्डिम बजाते हुए उसे वध भूमि में ले जाया जाने लगा।
इधर उस चोर ने विद्या के अधिदेवता को पूछा- क्या मेरे गुरु का बहुमान किया जा रहा है। देव ने उसका स्वरूप जानकर सारा वृतान्त निवेदन किया। तब वह कृतज्ञ भाव से उसकी रक्षा करने के लिए शीघ्र ही आकाश मार्ग से वहाँ आया। उसके वधकों को चित्रलिखित के समान स्तंभित करके पर्वत के सपक्ष सहोदरा की तरह नगर के ऊपर बहुत बड़ी शिला की रचना की। राजा के लेनदार की तरह उसने नगर द्वारों को बाँध दिया। शिला इस प्रकार कम्पित होने लगी, मानो अभी गिर पड़ेगी । शिला के खट-खट की आवाज से मानों ब्रह्माण्ड को फाड़ डाला हो, ऐसी आवाज से आक्रन्द करते दुःखी लोग खूब हाहाकार करने लगे। उन्होंने खम्भों को उखाड़ - उखाड़ कर हाथ में ले ले कर उन्हें ऊँचा किया, मानो गिरती हुई शिला को अनेक हाथों से थाम लेंगे। घोड़े आदि तिर्यंच बंधन तोड़कर भाग गये। नगर के कोट को उल्लंघन कर भागने की इच्छा से जीतोड़ कोशीश करने लगे। उसे वज्रशिला के समान देखकर लोग दुःखी होते हुए कहने लगे - ओह ! अब क्या होगा। यह संहार उपस्थित हुआ है। संपूर्ण विभूति का त्याग करके, देहमात्र को धन मानकर मृत्यु की उपस्थिति में अपनी संतान का भी स्मरण न करते हुए लोग चकित हो - होकर घर से निकल गये । बाड़ें बन्द तिर्यंच पशुओं की तरह, परम महामारी से पीड़ित के समान लोग बाहर जाने में असमर्थ होने पर परस्पर कहने लगे- अगर विधाता ने हमें पंख वाला बनाया होता, तो पक्षी की तरह हम भी उड़कर बाहर चले जाते । समुद्र के महा-आवर्त्त के मध्य रहे हुए की तरह तथा दावानल के मध्य फंसे हुए की तरह हम सभी निश्चय ही अभी यहीं मर जायेंगे ।
इस प्रकार संपूर्ण नगर में क्षोभ व्याप्त हो जाने पर राजा ने इस प्रकार चिन्तन किया- निश्चय ही मुझसे कोई भी अपराध हुआ है, जिससे यह अति अहित हो रहा है। तब राजा ने गीली धोती लपेटकर, दीनता का पात्र बनकर अभिमुख धूप उछालकर इस प्रकार कहा- देव अथवा दानव! आप जो कोई भी मुझ पर कुपित हैं, वे मुझ पर प्रसन्न हों एवं बतायें कि उनके लिए मैं क्या करूँ? तब आकाश में स्थित उस विद्यासिद्ध चोर ने कहा- तुमने उस वणिक को चोर मानकर उसका अपमान किया है, अतः यह घात किया गया है। उसको प्रसन्न करो। जाकर उसकी रक्षा करो। हे राजा ! नहीं तो मैं उस समय संपूर्ण पुरजनों के साथ तुम्हें चूर्ण बना दूँगा ।
तब राजा ने शीघ्र ही जाकर उस वणिक के चरणों में गिरकर अपनी भक्ति से उसे प्रसन्न किया। राजा की अंतःपुर की स्त्रियों ने भी अपना आँचल फैलाकर कहा - हे श्रेष्ठि ! हे महाभाग ! हमें पति की भिक्षा दे दो। इस प्रकार प्रशंसा करके उसे दिव्य वस्त्र पहनाकर स्वर्णरत्नमय दिव्य विभूषणों से विभूषित करके हाथी पर चढ़ाकर महा उत्साह पूर्वक राजा संपूर्ण नगर के मध्य से अपने महल पर ले गया। अपने सिंहासन पर राजा की तरह उसे बैठाकर स्वयं सेनापति की तरह राजा के सामने खड़ा हो गया। तब उस चोर ने भी नगर के ऊपर से शिला का संहरणकर लिया । विमान के द्वारा ही वह राजा के स्थान पर आया । सूर्य के समान असह्य तेज से युक्त, दिव्य आभरणों की कांति के द्वारा उस विमान से देव की तरह निकलकर गुरु को प्रणामकर वह वहाँ बैठ गया । फिर उस चोर ने अपना सम्पूर्ण वृतान्त राजा को कहा। यह सुनकर राजा भी विस्मय में डूब गया। तब चोर ने उसे पंचनमस्कार विद्या को राजा को दी। राजा ने भी प्रजा सहित श्रावक धर्म को स्वीकार किया। विश्वास दिलाने वाले उस परमेष्ठि मंत्र के प्रत्यक्ष प्रभाव को देखकर नगरजन भी एक चित्त से उस मंत्र का ध्यान करने लगे। फिर राजा व वणिक से पूछकर चोर चला गया। वणिक भी स्वस्थान पर चला गया। जाते हुए चोर के द्वारा वधकों को भी स्तम्भन मुक्त कर दिया
गया।
वणिक के द्वारा शंका किये जाने के कारण उसको विद्या सिद्ध नहीं हुई, पर चोर ने निःशंकित मानस द्वारा क्षण भर में ही विद्या सिद्ध कर ली ।
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