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सम्यक्त्व प्रकरणम्
दुर्गन्धा की कथा करो। दिव्य अंग-राग-सुगन्धित से युक्त, विपुल श्रृंगार धारण किये हुए वह अति प्रमोदपूर्वक उनको प्रति लाभित करने लगी। पसीने भरे हुए उन साधुओं के अंग के कपड़ों से तब दुर्गन्ध को सूंघकर उसने घृणापूर्वक विचार किया। श्री वीर स्वामी के द्वारा अच्छा साधु धर्म बताया गया। केवल वस्त्र व अंग का क्षालन जो नहीं करता, वह असाधु है। तब उस कन्या ने साधु की जुगुप्सा से उठे हुए दुर्धर कर्म अर्जित कर लिये। अपने आयुष्य का क्षय होने पर वह बिना आलोचना-प्रतिक्रमण के ही मर गयी।
राजग्रह नगर में एक वेश्या की कुक्षि से उसने जन्म लिया। गर्भ में रहते हुए भी वह अपनी माता के लिए अत्यन्त दुःखद थी। उसे गिराने के लिए वेश्या ने बहुत सारे पाप कार्य किये। गाद कर्म बांधे जाने से वह गर्भ गिराने की प्रक्रिया से नहीं मरी। अपने पूर्वकृत कर्म के कारण वह बालिका अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त पैदा हुई। पेट से बाहर निकलते ही माता द्वारा विष्ठा की तरह त्याग दी गयी।
उस समय श्री वीर जिनेश्वर को वंदन करने के लिए श्रेणिक राजा चला। शब्द-अद्वैत की तरह एक साथ मत्त हाथियों की टोपी से युक्त, घोड़ो के द्वीप के समान उनको घोड़ों से युक्त, प्रकाशित पदाति सैन्य द्वारा पृथ्वी को सैनिक मय बनाते हुए वह जा रहा था। तभी दुर्गन्ध से बाधित होते हुए आगे के सैनिक तीव्र बरसात वाले मेघ की तरह आतुर होकर राजा को नाक व मुँह ढंकने के लिए कहने के लिए तेजी से वापस मुड़े। राजा ने उनके वापस लौटने का कारण पूछा, तो उन्होंने ढके हुए नाक व मुख द्वारा राजा के समीप जाकर कहा - देव! अभी-अभी पैदा हुई दुर्गन्ध को उत्पन्न करती हुई, कोई बालिका आगे किसी के द्वारा परित्यक्ता होकर भूमि पर पड़ी हुई है। युद्ध क्षेत्र में महाशूर की तरह इसकी दुर्गन्ध दुःसह व दुर्धर है, जिसके प्रसारित होने से सभी सैनिक इसके सामने नामित है अर्थात् इस दुर्गन्ध रूपी महाशूर के आगे झुक गये हैं। हवा के विपरीत दिशा में होकर राजा ने सैनिकों सहित स्वयं उस बालिका को देखा और वहाँ से चला गया। समवसरण में जाकर वीर जिनेश्वर को नमन करके अवसर देखकर राजा ने दुर्गन्धा कन्या का वृत्तान्त पूछा। वीर प्रभु ने उसके पूर्व भव को बताकर इस प्रकार कहा - राजन्! साधु की जगुप्सा से उसे यह दुर्गन्धता रूपी फल प्राप्त हुआ है। राजा ने पुनः तीर्थपति को कृताञ्जलिकर पूछा - प्रभो! क्या सुपात्र दान का वह कर्म इसका निष्फल हो जायगा। स्वामी ने कहा - राजन्! इसका जुगुप्सा का कर्म क्षीण हो चुका है। अब सुपात्र दान से बंधे शुभ कर्मों के फल का उदयकाल है। यह आठ वर्ष की वय में तुम्हारी प्रिया बनेगी। इसको पहचानने के लिए हे राजन् यह ध्यान रखना कि शुद्ध मन से क्रीड़ा करते हुए यह तुम्हारी पीठ पर सिंहनी की भाँति शोभित होगी अथवा गौरी की तरह शोभित तम इसको जानोगे।
अहो! कर्म गति विचित्र है। यह भी भविष्य में रानी बनेगी। इस प्रकार विचार करते हुए राजा प्रभु को नमस्कार करके घर चला गया। तब कर्म-निर्जरा से दुर्गन्धा की दुर्गन्ध हवा के संपर्क से मूल की तरह ढह गयी। एक ग्वालिन अकेली अपने गाँव की ओर जा रही थी। संतान रहित उस ग्वालिन ने उस बाला को देखकर अपनी संतान-बुद्धि से ग्रहण किया। उस के घर में वह ग्वाल-बाला के रूप में बड़ी हुई। स्वर्ग के वन में होनेवाली कल्पवल्ली की तरह उसने सौन्दर्य सम्पदा को प्राप्त किया।
एक बार उसी नगर में कौमुदी महोत्सव हुआ। अनेक नट-समूहों द्वारा भाव भंगिना द्वारा नृत्य किया जा रहा था। वह भी कुमार वय को प्राप्त युवती की तरह युवाओं के नेत्रों में अमृत-अंजन के समान, उस नाटक को देखने के लिए अपनी माता के साथ आयी। श्रेणिक राजा भी उस महोत्सव को देखने की इच्छा से रात्रि में वीर चर्या द्वारा एकाकी गुप्तवेष द्वारा वहाँ आया। लोगों के बीच में दिव्य मूर्धस्थ राजा भी सामान्य जन लीला से उस उत्सव को देख रहा था। वह ग्वालिन-पुत्री भी उस राजा के पीछे खड़ी थी। वह बार-बार पाँवों की एडियाँ ऊपर करते हुए राजा के कन्धों पर हाथ रख-रखकर उत्सव देख रही थी। उसके सुधांशु लेखा के समान कर स्पर्श से राजा भी
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