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दुर्गन्धा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् तत्क्षण संभ्रान्त चन्द्रकान्त की तरह हो गया। गरदन मोड़कर उसके मुख को अनुरागपूर्वक देखकर उसके उत्तरीय के आँचल में अपनी अंगूठी बाँध दी। तब वहाँ से निकलकर राजा शीघ्र ही महल में आ गया। सर्व अमात्यों के शिरोमणी अभय को बुलाकर कहा - कौमुदी महोत्सव में देखते-देखते मेरी नाम-मुद्रा किसी भी प्रकार से खो गयी है। अतः तुम शीघ्र ही उसकी खोज करो। तब अभय ने शीघ्र ही अपने सैनिकों के साथ उस रंगस्थल को दुर्ग्रह दुर्ग की तरह चारों ओर से घेर लिया। फिर एक-एक जन को बुलाकर उसके वस्त्र, मुख और कुन्तल को खोज-खोजकर समस्त लोगों को वह महामति छोड़ रहा था। उस ग्वालिन पुत्री के वस्त्र आदि को देखते हुए उस उर्मिका को आंचल में बंधी हुई देखकर पूछा - हे शुभे! यह क्या है? कानों को दककर उसने भी कहा - मैं यह कुछ भी नहीं जानती हूँ। भयभीरु होते हुए वह हवा से हिलती हुई पताका की तरह काँपने लगी। निश्छल रूपवती उसको देखकर अमात्य ने विचार किया - इसने अंगूठी नहीं चुरायी, बल्कि राजा का चित्त चुराया है। निश्चय ही राजा ने इसमें अनुरक्त होकर इसकी पहचान करने के लिए ही स्वयं यह आँचल से बाँधकर मुझे इसको लाने का आदेश दिया है। अपनी बद्धि से अभय ने यह निश्चित करके, उसको धीरज बंधाकर उसे अपने घर ले गया। उसे नहलवाकर सविलेपनों द्वारा लेप करवाकर. सन्दर वस्त्र पहनाकर विभषणों से विभषित करके उसे अंतःपर में रखकर स्वयं राजा के पास आया। राजा की नामांकित अंगूठी राजा को अर्पित की। राजा ने पूछा - चोर का क्या किया? अभय ने कहा - शीघ्र ही उस चोर को गुप्तस्थान में रख दिया गया है। यह सुनकर राजा का चहेरा श्यामवर्णी हो गया। अभय ने भी कहा - देव! क्या अन्तःपुर गुप्तगृह नहीं है? राजा ने हंसकर कहा - वत्स! आखिर तुमने जान ही लिया। फिर राजा ने वहाँ से उठकर अनुराग से आकृष्ट मानस युक्त होकर शीघ्र ही गान्धर्व विवाह द्वारा उस बालिका को प्राप्त किया। आभीरी-सुता होने पर भी राजा ने उसे पट्टरानी बना दिया। क्यों न हो -
अनुरागग्रहिलां किमौचित्यं विजानते? अनुराग से ग्रसित क्या औचित्य को जानते हैं?
एक बार पृथ्वीवल्लभ श्रेणिक अंतपुर में गये। अपनी रानियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक स्वच्छन्द होकर चौपड़-पासा खेलने लगे। वहाँ पर यह शर्त लगी कि जो विजेता बनेगा वह हारे हुए के पीठ पर घोड़े की तरह चढ़कर पृथ्वी पर अंकित करता हुआ जायगा। जब सुवंश में उत्पन्न रानियाँ जीततीं, तो वे अपना उत्तरीय राजा की पीठ पर रख देतीं, लेकिन सुकुलोत्पन्न होने के कारण स्वयं पति की पीठ पर नहीं बैठती थीं। एक बार वेश्या पुत्री वह रानी जब जीती तो लज्जा रहित होकर राजा की पीठ पर आरुढ़ हो गयी। कहा भी है -
दुःकुलानां हि का त्रपा? खराब कुल-वालियों को कैसी लज्जा?
तभी राजा को अर्हत् प्रभु के वचनों का स्मरण आ जाने से हंसी आ गयी। उसने भी पीठ से उतरकर आशंका सहित हास्य का कारण पूछा। राजा ने कहा - हास्य का कारण तुम्हारे कुल का परिज्ञान है। भद्रे! उसने भी कहा - देव! क्या मेरा कुल हास्य के योग्य है? तब राजा ने प्रभु वीर द्वारा आख्यान उसके पूर्व भव से लगाकर पीठ पर चढ़ने तक का सारा वृतान्त कहा। यह सुनकर भव से उद्विग्न होते हुए उसने बल पूर्वक राजा से आज्ञा लेकर महाउत्साहपूर्वक श्री वीर चरणसन्निधि में व्रत ग्रहण किया। व्रत को सम्यक् पालकर प्राग्भव की जुगुप्सा की आलोचना की। चिरकाल तक स्वर्ग के सुखों को भोगकर क्रमशः सिद्धि-सौध-को प्राप्त करेगी।
इस प्रकार विजुगुप्सा में दुर्गन्धा की कथा पूर्ण हुई। अब पर पाखंडी प्रशंसा में दृष्टान्त बताते हैं -
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