Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 363
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सुलसा की कथा || सुलसा की कथा || न्याय धर्म आदि की निवास भूमि मगध नामक देश था। वहाँ मानो दुर्भिक्ष महामारि आदि ने ईष्यावश उस भूमि का त्याग कर दिया हो। अतः वहाँ हमेशा सुकाल बरतता था। उस देश में राजगृह नामक नगर था, जिसने द्वारिका की श्रिया को ही जीत लिया था। राजा की तरह ही वहाँ पर सभी लक्ष्मी के पति के समान श्रीपति थे। वहाँ श्रेणिक नामक राजा था, जो राजा की तरह ही अति सुर्दशन था। वह अपने प्रेमालुओं द्वारा नीलकमल की तरह फैले हुए हाथों में रखा जाता था। वहाँ समस्त रथिकों का अग्रणी नाग नामक रथी था। सर्व गुणों का अद्भुत समूह उसमें शोभित होता था। वह राजा श्रेणिक का कृपापात्र था। उसकी पतिव्रता पत्नी सुलसा पुण्य की लालसा से अपने नित्य कृत्यों में कभी भी आलस द्वारा चलित नहीं होती थी। सफलता होते हुए भी नित्य ही धर्म में दृदरता थी। जिसके हृदय में सम्यक्त्व पृथ्वी पर रहे हुए पर्वत की भाँति अडोल था। श्रावक के बारह व्रत उसके पाँवों की तरह थे। करुणा, सत्य, शील आदि सभी महाऋद्धियाँ सुखपूर्वक निर्बाध वृत्ति से उसके शरीर में निवास करती थीं। ___ उधर भय होने पर भी अकम्पमान चम्पापुरी में धर्म चक्रवर्ती श्री वीर भगवान् पधारे। देवों के द्वारा यथाविधि समवसरण निर्मित किया गया। जगत् को विस्मित करने वाली श्री से युक्त उसमें प्रभु महावीर विराजे। तब परिव्राजक-पुंगव अम्बड़ भी छत्र, दण्डिका, कमण्डल व आसन विशेष के साथ वहाँ आया। तीन प्रदक्षिणा देकर स्वामी को प्रणाम करके अत्यधिक रोमांचपूर्वक उच्चारण द्वारा स्तुति करके वह बैठ गया। भव्य सिद्धि रूपी सौध की अग्रता को प्राप्त कराने में साक्षी के समान वृष्टि युक्त देशना प्रभु ने दी। देशना सुनकर अंबड ने मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिए उत्तम सम्यग्दर्शन को करार की तरह ग्रहण किया। उस सम्यक्त्व रत्न को चिन्तामणि रत्न की तरह प्राप्तकर अपने आप को धन्य मानते हुए खुशी-खुशी राजगृह नगर की ओर जाने लगा। सुलसा की परीक्षा द्वारा इसका धर्म में स्थिरीकरण हो जाय - इस उपकार के लिए प्रभु ने उसको कहा - वहाँ राजगृह नगरी में नाग-सारथी की सुलसा नामकी पत्नी है। मेरे आदेश से अनार्त्त बुद्धि वाली उसकी धर्मवार्ता पूछना। सिर हिलाकर स्वामी के आदेश को अंजलिपूर्वक स्वीकार करके वह क्षणभर में गगन-मार्ग से राजगृह पुरी को प्राप्त हुआ। सुलसा के घर के द्वार पर जाकर उसने विचार किया - उस प्रकार की सभा में वीतराग होते हुए भी प्रभु ने जिसका नाम लेकर अपना संदेश कहा है, वह सुलसा कैसी है - इसका परीक्षण करना चाहिए। तब उसने वैक्रिय लब्धि द्वारा क्षणभर में रूप परिवर्तन करके सुलसा के सदन में प्रवेश करके भिक्षा की याचना की - हे शुभे! तुम धर्मार्थिनी हो। दान को पात्रसात् करो। उसने कहा - साधु के बिना दूसरे को धर्म के लिए नहीं देती हूँ। तब अंबड़ बाहर जाकर नगरी के पूर्वद्वार के समीप ब्रह्मा का वेश बनाकर सुसमाहित होकर वहाँ स्थिर हो गया। पभासन पर ब्रह्मा की तरह चार बाहु, चार मुख, यज्ञोपवीत सूत्र, जापमाला तथा जटा द्वारा मस्तक का मुकुट बनाकर सावित्री प्रिया से युक्त होकर धर्म मार्ग का उपदेश देने लगा। अखिल नागरिकों द्वारा उसे साक्षात् ब्रह्मा मानकर पर्युपासना की जाने लगी। सखी-वृन्द द्वारा ब्रह्मस्तुति पदों द्वारा बुलाये जाने पर भी तत्त्व को जाननेवाली सुलसा न वहाँ गयी, न ही उनकी प्रशंसा की। __दूसरे दिन अम्बड़ दक्षिण दिशा में गरुड़ासन लगाकर विष्णु की मूर्ति रूप से स्थित हो गया। श्रीमन्त शंख, चक्र, गदा को धारण कर लिया। यह स्वयं विष्णु हैं - इस प्रकार मूद लोगों ने सेवा-पूजा की। पर अर्हत् धर्म मात्र में अनुरक्त आत्मा वाली सुलसा ने उसे कोई महत्त्व नहीं दिया। ____तीसरे दिन पश्चिम दिशा में त्रिनेत्र युक्त, मस्तक पर चन्द्रमा धारण किए हुये, मृगचर्म की खाल ओढ़े हुए, गौरी सहित बैल पर सवार शंकर का रूप बनाया। भाला, धनुष, गदा धारण किये हुए, भस्म को सारे शरीर पर 314

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