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सम्यक्त्व प्रकरणम्
जिनदास की कथा अतः सुविवेक के पात्र जनों द्वारा पर-पाखण्डी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, तभी सुलसा की तरह निर्मल सम्यक्त्व के कारण अवश्य ही सिद्धि प्राप्त होगी।
इस प्रकार पर पाखण्डी की प्रशंसा के परिहार में सुलसा की कथा पूर्ण हुई। अब पर-पाखण्डी संस्तव का दृष्टान्त प्रस्तुत किया जाता है -
|| जिनदास की कथा || इस जगती तल पर व्याख्यात सौराष्ट्र नामक देश है। वहाँ रैवतक पर्वत के समीप गिरिनगर नामक पुर है। वहाँ निर्मल सम्यक्त्वधारी, बारह व्रत स्वीकार किये हुए, जिनधर्म के रहस्य को जाननेवाला जिनदास नामक श्रावक रहता था। एक बार दुर्भिक्ष काल में निर्वाह का अभाव होने से वह किसी सार्थ के साथ उज्जयिनी के लिए रवाना हुआ। बीच अन्तराल में वह प्रमादवश सार्थ से अलग हो गया और उसका पाथेय सार्थ के साथ ही चला गया। उस प्रकार के किसी दूसरे सार्थ का साथ उसे नहीं मिला। अतः वह बौद्ध भिक्षुओं के सार्थ के साथ चलने लगा। उन्होंने कहा - हे पथिक! अगर इतनी मात्रा में हमारा सामान उठाओगे तो हम भी तुम्हें इच्छित भोजन दे देंगे। जंगल में भटकते हुए उसने स्वीकार कर लिया क्योंकि -
सेव्यते ह्यपवादोऽपि तरीतुं व्यसनार्णवम् । दुःख-सागर को पार करने के लिए अपवाद मार्ग का भी सेवन किया जाता है।
उसने भारवाहक की तरह उतनी मात्रा में उनका सामान वहन करना प्रारम्भ कर दिया। प्रथम दिन उन भिक्षुकों ने उसे अति स्निग्ध मोदक खाने के लिए दिये। प्रायः बौद्ध लोग मनोरम व स्निग्ध भोजी होते हैं। उन्हीं के मत-वादियों द्वारा यह कहा जाता है कि मृदु शय्या, सुबह उठकर पेय, मध्याह्न में भोजन, अपराह्न में पानक, अर्धरात्रि में द्राक्षाखाण्ड, शर्करा खाने वाले का अन्त में मोक्ष शाक्यसिंह के द्वारा देखा गया है। मनोज्ञ भोजन खाकर, मनोज्ञ शयनासन में सोकर मुनि मनोज्ञ हवेली में रहकर ही मनोज्ञ ध्यानी हो सकता है।
एक बार उस श्रावक के अजीर्ण से विसूचिका हो गयी। यमदूती की तरह दुष्ट उसके द्वारा गाढ़ पीड़ा उत्पन्न हुई। वैद्य तथा औषध के वहाँ प्राप्त न होने से प्रकाशमान स्थल में भी पीड़ा के द्वारा अन्धकार व्याप्त हो गया। जिनदास ने उस व्यथा के द्वारा अपना अंतिम समय जानकर, प्रबल शाकिनी की तरह उस पीड़ा का प्रतिकार करना
असंभव होने से योगी की तरह पभासन में बैठकर एकाग्र मन से उसने स्वयं सिद्ध-साक्षी से आलोचना की। त्रिजगत्पूज्य ही अरिहंत है। सनातन सिद्धि में सिद्ध है। साधुता के पात्र साधु हैं। केवलि-प्रशंसित ही धर्म है। ये चारों ही उत्तम मेरा मंगल करें। मुझ रोगी के चार शरण हों। सर्व प्राणि-वध, अलीक, स्तेय, अब्रह्म व परिग्रह, देह तथा आहार - इन सभी का मैं अब परित्याग करता हूँ। इस प्रकार अंतर्मन में धारणा करके अनशन क्रिया करके, गुरु का अभाव होने पर भी सामने स्थित गुरु की तरह पंच नमस्कार गिनते हुए सम्पूर्ण प्राणियों से क्षमायाचना करते हुए वह निरवद्य आत्मा सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुई। तब उन बौद्धों ने अपनी आचार-विधि द्वारा लाल वस्त्र में लपेटकर उसे एकान्त में फेंककर स्वयं चले गये। ____वह देव अंतमुहूर्त में ही प्राप्त नवयौवन वाला हो गया। पलंग पर निद्राधीन व्यक्ति जागकर उठ खड़ा हुआ हो, ऐसे वह उठा। अत्यधिक विस्मय पैदा करने वाली उस दिव्य देव-ऋद्धि को देखकर दास-देवों द्वारा जय-जय ध्वनि से जनाते हुए सुनकर उसने विचार किया - मैंने पूर्वभव में ऐसा क्या किया था, जिससे इस प्रकार की ऋद्धि प्राप्त हुई है। ज्ञान का उपयोग लगाने पर जिनदास देव ने अवधिज्ञान से अपनी देह को लालवस्त्र में लपेटे हुए देखा। उसका मन भ्रान्त हो गया। उसने सोचा की मैं पूर्व भव में सौगत था। अतः वह एकमात्र सौगत दर्शन ही प्रधान है।
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