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सम्यक्त्व प्रकरणम्
राजा-अमात्य की कथा
अतः भव्य जनों द्वारा समकित प्राप्त करके उसे शंका द्वारा दूषित नहीं बनाया जाना चाहिए, बल्कि इसका निःशंक होकर पालन करना चाहिए, जिससे इसके द्वारा शीघ्र ही मोक्ष रूपी सुख को प्राप्त किया जा सके।
इस प्रकार शंका के करने व न करने में भवदत्त की कथा समाप्त हुई। अब कांक्षा में दृष्टान्त को कहा जाता है -
।। राजा-अमात्य की कथा ।। जम्बूद्वीप के अन्दर कुशस्थल नामक नगर था, जिसे प्राप्तकर लोग स्वर्ग को भी अवमान्य करते थे। वहाँ राजा कुशध्वज राज्य करता था, जो रूप से कामदेव के समान था। स्थापना से वह विष्णु के समान था। तेज से गगन ध्वज अर्थात् सूर्य के समान था। उस राजा के कुशाग्रबुद्धि नामक अमात्य था। वह देवों में वागीश के समान तथा देव शत्रुओं में इन्द्र के समान था।
एक बार विपरीत शिक्षा से युक्त दो अद्भुत अश्व इन्द्र की पताका की तरह खींचकर लाये गये अर्थात् जिस प्रकार उत्सव आदि यात्रा में प्रवृत्त इन्द्र के आगे चलनेवाले पताका हाथ में लिए हुए अश्ववाहक होते हैं, मानो उसी प्रकार वे अश्व लाये गये हों। अन्दर से दुष्ट व ऊपर से स्निग्ध किसी दुष्ट व्यक्ति के द्वारा राजा कुशध्वज को यह उपहार भेजा गया था। सर्व लक्षण से लक्षित, सर्वांग से सुन्दर उन दोनों अश्वों को अश्व परीक्षक के द्वारा बिना परीक्षा किये बिना ही शीघ्रता से कुतुहल पूर्वक राजा और अमात्य उन दोनों अश्वों पर बैठ गये। अश्व को वाहन बनाकर वे दोनों उस पर चढ़कर सैर के लिए निकल गये। दोनों अश्वों की गतिचातुर्य के अतिशय को देखकर विस्मित होते हुए उन अश्वों को वापस मोड़ने के लिए जैसे लगाम खींची, वैसे ही अश्वों ने सुरा से वैरी बने हुए की तरह वेग से भागते हए भयंकर दरुत्तार सागर की तरह महा अरण्य में उन दोनों को डाल दिया। लगाम खींच-खींचकर थकते हुए उन दोनों ने लगाम छोड़ दी। तुरन्त ही वे घोड़े स्तम्भित की तरह रुक गये। तब उन्हें ज्ञात हुआ की खल-पुरुष की तरह ये दोनों विपरीत शिक्षा को प्राप्त किये हुए हैं। उस दुष्टों के संग से भयभीत की तरह वे दोनों घोड़ों से उतर गये। उनके उतरने मात्र से ही दोनों घोड़े भूमि पर गिर गये। मानो राजा व अमात्य को भयंकर जंगल में ले जाकर छोड़ देने के पाप से ही उनकी मृत्यु हुई हो। फिर राजा व मंत्री ने पानी की इच्छा से चारों ओर दृष्टि दौडायी। दूर एक तरफ उन्होंने बगुलों को देखा। तब मन्त्री ने राजा से कहा - बगुलों के दिखायी देने के कारण अनुमान होता है कि वहाँ निश्चय ही जल होना चाहिए। जैसे कि धुंए से अग्नि का ज्ञान होता है। तब जीवन जीने की उत्कण्ठा से युक्त दोनों शीघ्र ही वहाँ गये। वहाँ नये से अधिक सुधा कुण्ड के समान आगे एक सरोवर देखा। अपने सामने प्रियमित्र की तरह उसे देखकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। विकसित कमलों से युक्त उस तालाब की लहरों में अपने हाथों को डाला। फिर वहाँ स्नान करके, निर्मल जल को पीकर, तालाब के किनारे रहे हुए वृक्षों के फलों को खाकर उन्हीं वृक्षों की छाया में अपने स्वजनों के घर की तरह मानकर हंस की पाँखों से बनी हुई शय्या के समान पत्रशय्या पर सो गये। दूसरे दिन उस स्थान से वे दोनों अपने नगर की ओर पैदल ही वन में चरनेवालें जीवों की तरह चले। पदाति सैनिकों की तरह अश्वों के पाँवों के चिह्न को देखते हुए स्वर के व्यञ्जनानुगामी होने की तरह उन्हें कुछ लोग भी मिल गये। तब उन लोगों से युक्त होकर राजा व मंत्री साम्राज्य-क्रीड़ा के द्वारा चार दिनों में अपने राज्य में पहुँचे। हवा के चलने से ऊँची उठी हुई पताकाओं के समूह के अद्भुत रूप से हिलने से ऐसा लगता था, मानो अपने स्वामी के आगमन के हर्ष में पूरा नगर नृत्य कर रहा हो। मंगलाचार से मुखरित होते हुए सभी नागरिका-जनों ने राजा के आगमन से प्रमुदित होते हुए उत्साहपूर्वक वर्धापन किया। ___ राजा को वन में बेस्वाद फलों का भोजन वनतापस की तरह करते हुए पाँच दिन हो गये थे। अतः अतिभूख
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