Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 355
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्प्रति राजा की कथा संप्रति महाराज को भी उन्होंने कहा - महाराज! राजपिण्ड विशेष रूप से अनेषणीय होने से सुसाधुओं को नहीं कल्पता है। पहले भी श्री युगादि जिनेन्द्र ऋषभ प्रभु ने भी स्वयं इन्द्र महाराज आदि की साक्षी में भरत के राज पिण्ड का निषेध किया था। उसके भी श्रावक श्राविका जन दान के पात्र थे। स्वामी के द्वारा कहा गया- वत्स! तुम भी उसी पथ पर जाओ। गुरु की उस शिक्षा को निवृत्ति के पत्तल की तरह लेकर परम आनन्द मग्न होकर धर्म की पालना करने लगा। आर्य व अनार्य देशों में मनुष्यों के हृदय-स्थानक में स्वामी की आज्ञा की तरह सम्यक्त्व के बीज को बोया और वर्द्धित किया। श्री संप्रति राजा जिनेश्वर के सम्यक्त्व मूल निर्मल धर्म का सम्यक् पालन करके दैवीय श्री को भोगकर अनुपमेय अनर्घ्य मुक्ति को शुभरूप मति के द्वारा क्रम पूर्वक प्राप्त करेगा। अतः हे भव्यों! निवृत्ति को प्राप्त करने की इच्छा से तुम लोगों को भी इस विशुद्ध सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त करके सुपुत्र के समान निर्मल चित्त के अनुराग पूर्वक इसका परिपालन करना चाहिए। इस प्रकार सम्यक्त्व के विषय में संप्रति राजा की कथा पूर्ण हुई।४९।।२४९।। अब सम्यक्त्व के योग्य कौन होता है - इसे बताते हैंभासामइबुद्धिविवेगविणयकुसलो जियक्ख गंभीरो । उवसमगुणेहिं जुत्तो निच्छयववहारनयनिउणो ॥४४॥ (२५०) जिणगुरुसुयभत्तिरओ हियमियपियययणजंपिरो धीरो । संकाऊदोसरहिओ अरिहो सम्मत्तरयणस्स ॥४५॥ (२५१) भाषा, मति, बुद्धि, विवेक, विनय में कुशल, जितेन्द्रिय, गंभीर, उपशम गुणों से युक्त, निश्चय-व्यवहार नय में निपुण, जिन-गुरु, श्रुत में भक्ति रत, हित-मित-प्रिय वचन बोलने वाला, धीर, शंकादि दोष से रहित ही सम्यक्त्वरत्न के योग्य होता है। यहाँ पर भाषा-सावद्य तथा निरवद्य रूप है। मति अर्थात् यथावस्थित शास्त्रार्थ को जाननेवाला, बुद्धिऔत्पातिकी आदि, विवेक-कृत्य-अकृत्य आदि के विषय में - इन सब में कुशल हो। जितेन्द्रिय हो। रोष तोष आदि में अलक्ष्य होने से गंभीर हो। उपशम प्रधान गुणों से युक्त हो। निश्चय नय तथा व्यवहार नय में निपुण हो।।४४||२५०।। जिनेश्वर देव, सुगुरु तथा सूत्र की भक्ति में रत हो। हितकारी, संक्षिप्त व प्रिय वचन बोलने वाला हो। धैर्यशाली हो। शंकादि दोषों से रहित हो। शंका - जिन धर्म तत्त्व रूप है या अतत्त्वरूप है - यह सन्देह करना। कांक्षा - अन्यान्य दर्शनों की अभिलाषा करना। विचिकित्सा - धर्म के फल में सन्देह करना। जैसे - पूर्व में इसका फल सात्विक था, मेरे जैसे का क्या फल होगा अथवा विजुगुप्सा करना। साधु होने पर भी उनके सदाचार की निन्दा करना। जैसे कि अति मैल होने से दुर्गन्धयुक्त हैं। यदि ये मुनि गरम पानी से नहायें, तो क्या दोष है? पर पाखण्डी प्रशंसा तथा परपाखण्डी संस्तव अर्थात् परिचय रखना - ये पाँच सम्यक्त्व के अतिचार हैं। इनका विपाक दृष्टान्तों से स्पष्ट होगा और वे दृष्टान्त इस प्रकार हैं। सबसे पहले शंका का दृष्टांत कहा जाता है - 306

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