Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 348
________________ सम्प्रति राजा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् नहीं होते, उनके साथ भोजन करने से कौन श्लाघनीय नहीं होगा? वे तो त्रिजगत् - वन्द्य ब्रह्मचारी कुमार हैं। इनके चरणों की रज भी यहाँ पावन से भी पावन है। इस प्रकार चन्द्रगुप्त को प्रबोधित करके और दोनों क्षुल्लकों को भेजकर चाणक्य भी उनके पीछे आया और गुरु को उपालम्भ दिया। प्रभो ! अगर आपके शिष्य ही इस प्रकार करते हैं तो अब अन्यत्र कहाँ पर पवित्र चारित्र प्राप्त होगा? गुरु ने कहा- चाणक्य तुम श्रावक हो। तुम्हारे द्वारा साधुओं को महादान देने पर स्वर्ग में स्थित तुम्हारा पिता श्रावक चणी प्रसन्न होगा। दुष्काल के उत्कर्ष रूप से प्राप्त होने पर और तुम्हारे वैभव के उत्कर्ष में प्राप्त होने पर तुम्हारे जैसे द्वारा महादान न देने से भवोदधि दुस्तरणीय नहीं होगा ? संपूर्ण गच्छ को तो मैंने देशान्तर में भेज दिया। क्योंकि कल्पवृक्ष की तरह तुम्हारे जैसा श्रावक यहाँ है - यह मैंने माना । अब तो ये दोनों क्षुल्लक ही मेरे पास हैं। तुम इनकी आहारादि से भक्ति करोगे तो तुम जैसे श्रावक की बहुत ही प्रसिद्धि वे करेंगे। गुरु ने उन दोनों शैक्षकों को भी उपालंभ देते हुए कहा कि तुम दोनों द्वारा यह क्या किया गया? त्याज्यो हि साधुभिर्नात्मा महत्यपि परीषहे । महान् परीषह आने पर भी साधु को आत्मा का (अपनी प्रतिज्ञा का) त्याग नहीं करना चाहिए। हाथी का हाथी के समूह में, स्वर्ण का कसौटी पर, दुःख आने पर सात्विकों का सार जाना जाता है। तब दोनों क्षुल्लकों ने गुरु के सामने झुककर अपने पाप की क्षमा-याचना की। प्रभु ! अब हम पुनः ऐसा नहीं करेंगे- इस प्रकार मिथ्या - दुष्कृत दिया । चाणक्य ने भी यह सुनकर लज्जित होते हुए गुरु से कहा - प्रभो! आपकी शिक्षाओं द्वारा मुझे भवउदधि से आपने उद्धार किया है। आज से आगे मेरे घर में विशुद्ध अशन आदि द्वारा मुझ पर सदा अनुग्रह कीजिए। मुझ प्रमत्तप्रमुख का निस्तारण कीजिए। इतने दिनों तक भक्त आदि के सहारे कहीं से भी आपके द्वारा आहार लाया गया, वह सभी मेरा दोष था। आप क्षमाधनी इन शिष्यों पर प्रसन्न होकर क्षमा करें। इस प्रकार कहकर गुरु को प्रणाम करके चाणक्य घर चला गया। क्षुल्लक भी उसके घर पर आहारादि सुखपूर्वक ग्रहण करने लगे । एक बार चन्द्रगुप्त को मिथ्यादृष्टि से प्रतारित जानकर अपने पिता की तरह ही धर्मप्रिय बनाने के लिए स्नेहवश से - चाणक्य ने कहा- वत्स! ये पाखण्डी हैं । जीविका के लिए व्रत धारण किया है। ये दुःशील वाले, दया रहित हैं। पापी हैं। इनका नाम भी नहीं लिया जाता । बहेड़े के वृक्ष की तरह इनकी छाया भी त्याज्य है। इनकी पूजा आदि की वार्त्ता तो कान में गरम-गरम सीसा डालने के समान है। इन अधर्मियों की राजधानी में कषाय विषय अज्ञान का साम्राज्य है। हे वत्स! इन्हें दान देना अग्नि में आहुति डालने के समान है। यह सुनकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने कहा- आपके वचन मेरे मस्तक के ऊपर हैं। पर आप मुझे यह सब प्रत्यक्ष करके बताइए | तब एक दिन मन्त्री ने सम्पूर्ण पाखंडियों को राजा के सामने अपने-अपने धर्म का कथन करने के लिए बुलाया। अंतःपुर के समीप ही सूनसान स्थान में उनको बैठाया। उस जगह पर पहले ही उस बुद्धिमान मन्त्री ने लोष्टचूर्ण चारों ओर बिछवा दिया था। जब तक राजा आता, तब तक वे सभी अविजित इन्द्रिय वाले उठ उठकर जाली के द्वारों से राजा की रानियाँ आदि को देखने लगे। राजा को आता हुआ देखकर वे सभी अंगोपांग की यथास्थिती मुद्रा को धारण करके बैठ गये। अपने-अपने धर्म का राजा के सामने कथन करके वे लोग जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। चाणक्य ने लौष्टचूर्ण पर उन-उन के पाँवों के प्रतिबिम्ब राजा को दिखाया। फिर कहा - देखो! इनकी स्त्री लोलुपता को देखो। जब तक तुम नहीं आये, तब तक ये लोग रह-रह कर तुम्हारे अंतः पुर को जालिका के पास जाकर देख रहे थे। चन्द्रगुप्त भी उनकी दुःशील चेष्टाओं को देखकर शीघ्र ही झूठी स्त्रियों से विरक्त होने की तरह उनसे विरक्त हो गया। फिर पुनः उस लोष्टचूर्ण को समसार करके श्वेत वस्त्र धारियों को दूसरे दिन मंत्री ने उसी प्रकार वहाँ बुलाया। वे मुनीन्द्र अपनी मुद्रा से ध्यान - मौन परायण जितेन्द्रिय रूप से बिम्ब की 299

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