Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 352
________________ सम्प्रति राजा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् का राज्य उसकी विमाता के पुत्र को दे दिया। परम्परा से विमाता का आचरण जानकर कुणाल के दिल के टुकड़ेटुकडे हो गये। उसे बहुत धक्का लगा। वह गाँव में रहते हुए बिना किसी कार्य के अल्प-परिवार से युक्त गीतप्रसक्ति आदि द्वारा अपने भाग्य के दिनों को पूरा करने लगा। इसी बीच उस भिखारी की आत्मा ने अंतिम समय में प्राप्त संयम-धर्म के प्रभाव से कुणाल की पत्नी के गर्भ में शरद-श्री की तरह जन्म धारण किया। दो मास व्यतीत हो जाने के बाद कुणाल की पत्नी के मन में देव, गुरु आदि के पूजन का दोहद उत्पन्न हुआ। कुणाल ने उसे पूर्ण कराया। दिवस पूर्ण होने पर पुत्र का जन्म हुआ। दासी ने कुणाल को पुत्र-जन्म की बधाई दी। तब विमाता के मनोरथ को विफल करूँगा और अपने राज्य को पुनः ग्रहण करूँगा - इस प्रकार विचारकर वह उसी समय गाँव से निकलकर पाटलिपुत्र आया। राज मार्ग के समीप सभा में वह गाने लगा। उसका स्वर सौंदर्य किरणों की तरह नियन्त्रित था। वहाँ से जो भी व्यक्ति निकला, वह स्थिर हो गया। उसके गुणों से रञ्जित होकर सभी एक मुख से उसकी प्रशंसा करने लगे। हाहा, हूहू आदि गांधों के शिष्य इसी को ही नमन करने लगे। मानने लगे। राजा की सभा में भी उसके गुणों का बखान हुआ। राजा ने भी उसे सभा क्योंकि कौतुक किसको अद्भुत नहीं लगता। उसने भी राज सभा में यवनिका के अन्दर बैठने की इच्छा जाहिर की, जिससे राजा उसके शरीर की विकलांगता को न देख पाये। उसके अतिशायी गीत से तुष्ट होते हुए राजा ने कहा - वरदान माँगो। उसने भी गीत गाते हुए ही याचना की - चन्द्रगुप्त का प्रपौत्र, बिन्दुसार का पौत्र तथा अशोक श्री का अन्धा तनूज यह काकिणी की याचना करता है। यह सुनकर अश्रु बरसाते हुए यवनिका को हटाकर कुणाल को गले लगाकर राजा अशोक श्री ने कहा - पुत्र! तुमने तो थोड़ा ही माँगा। तब मन्त्री ने कहा - देव! यह अल्प नहीं है। राजपुत्रों का राज्य काकिणी ही कहा जाता है। राजा ने कहा -मैंने तो उसी के लिए ही राज्य संकल्पित किया था, भाग्य ने सब कुछ विपरीत कर दिया। अब इसे कैसे दिया जा सकता है? कुणाल ने कहा - तात! मेरा पुत्र राज्य करेगा। राजा ने पूछा - तुम्हारे पुत्र कब हुआ? उसने कहा - सम्प्रति। तब राजा ने उसी समय कुणाल के पुत्र का नाम संप्रति रखा। दस दिन बाद उसे लाकर अपना राज्य दिया। क्रमशः बड़ा होने पर उसने अर्द्ध भरत को साध लिया। अनार्य जनपदों को भी उसने अपने वश में किया। राजा संप्रति संपूर्ण पृथ्वी चक्र को चक्री की तरह साधित करते हुए उद्योत जगाते हुए एक बार उज्जयिनी नगरी में आया। वहाँ संयम यात्रा के लिए प्रभु जीवन्त प्रतिमा को वंदन करने के लिए क्रमशः आर्य महागिरि तथा आर्य सुहस्ति भी वहाँ आये। उस समय अंतरंग शत्रुओं को जीतने की इच्छा के समान अपने सर्वस्व आदि के द्वारा जीवन्त स्वामी का रथ निकाला। महागिरिसुहस्ति आचार्यश्री की निश्रा में संघ से परिष्कृत स्वेच्छानुसार पुरी में वह रथ प्राकाम्य सिद्धि की तरह विचरने लगा। उस महोत्सव द्वारा वे नरेन्द्र के महल के द्वार पर आये। गवाक्ष में स्थित सम्प्रति राजा ने आर्य सुहस्ति को देखा। देखकर विचार किया कि इनको मैंने पहले कहीं देखा है। पर ये कहाँ दृष्टिगोचर हुए? इस प्रकार विचार करते हुए राजा को मूर्छा आ गयी। समीपस्थ परिजनों ने उसे चन्दन आदि द्वारा सिंचन किया। तालवृन्त आदि द्वारा होश में लाये जाने पर उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। तब उसने अपने पूर्व भव के गुरु को जान लिया। वहाँ जाकर भक्तिपूर्वक कृतांजलि से नमन किया एवं पूछा - अर्हत् धर्म रूपी कल्पवृक्ष का क्या फल है? उन्होंने कहा - हे राजन्! इसके फल स्वर्ग-अपवर्ग का लाभ है। पुनः राजा सम्प्रति ने पूछा - पूज्य! अव्यक्त व्रत से क्या फल उत्पन्न होता है? गुरु ने भी कहा - हे भूप! भूपतित्व आदि प्राप्त होता है। तब विश्वास हो जाने पर राजा ने कहा - आप मुझे जानते हैं या नहीं? गुरु ने श्रुत उपयोग से जानकर राजा को कहा - अच्छी तरह से जान गया हूँ। तुम अपने पूर्व के भव में मेरे शिष्य थे। तब हर्ष की प्रकर्षता से गुरु को वंदन करके राजा ने कहा - हे भवभ्रमण से परिश्रान्त जन्तुओं के विश्राम रूपी पादप! कारुण्य रूपी अमृत को बरसाने वाले बादल! श्रुतरत्न की महानिधि! स्वामिन्! उस समय 303

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