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सम्प्रति राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
गन्धचूर्ण को मध्य से भी मध्य में रखकर मंजूषा में बन्द करके छोड़ दिया। फिर छाणों के मध्य, गायों की स्थण्डिल भूमि में अनशन करके इंगिनीमरण की इच्छा से वहाँ स्थित हो गया।
यह सुनकर धात्री ने राजा से कहा - वत्स! तुम्हें प्राण देने वाले तथा राज्य देनेवाले महात्म्य की क्या तुमने अवज्ञा की है? तब उस धात्री के मुख से राजा ने संपूर्ण स्वरूप सुना, तो वहाँ जाकर उनके पाँवों में लगकर भक्तियुक्त होकर बोला- अज्ञानता से ही मेरे द्वारा आपकी अवज्ञा हुई है। अतः मेरा त्याग न करें। क्योंकि -
पुरीषमुत्सृजत्यङ्के डिम्भश्चेत्तत् त्यज्यते स किम् । अगर बच्चा माँ की गोद में मल का त्याग कर दे, तो क्या माँ बच्चे का त्याग कर देती है?
अतः प्रसन्न होकर घर आवें। अपने साम्राज्य पर शासन करें। चाणक्य ने कहा - वत्स! बस करो। मैं इस समय अनशनी हूँ। तब सर्वस्व चला गया हो - इस प्रकार रोता हुआ राजा लौटकर घर आ गया। हा! मैं अकृतज्ञ बन गया। इस प्रकार बार-बार स्वयं की हीलना करने लगा।
उधर सुबन्धु ने विचार किया कि यदि यह कभी लौट आया तो मेरे संपूर्ण वर्ग का (वंश का) समूलोच्छेद निश्चय ही कर देगा। यह विचारकर उस शठ ने अश्रुपूर्ण नेत्रों द्वारा गद्गद् होकर नृप से कहा - देव! भाग्य योग से बिना विचार करने से यह अनर्थ हो गया। अगर देव की आज्ञा हो, तो समता में निमग्न चित्तवाले चाणक्य की सेवा पूजा द्वारा मैं भाव-वृद्धि करूँ। तब राजा की अनुमति लेकर वह दम्भिक सन्ध्या समय में वहाँ आकर अर्चा करके उसके अत्यन्त समीप धूप-अंगार रखकर वह कुधी वाला वहाँ से चला गया। उस अग्नि से तपित होते हुए वह महातपस्वी चाणक्य दुष्कर्म ग्रसित रोगी की तरह भावना भाने लगा - विष्टा, मूत्र पसीना, मल, दुर्गन्ध पिच्छल वाले अतीव बीभत्स इस शरीर में हे जीव! प्रेम मत करना। पुण्य व पाप ये दोनों ही जीव के साथ जाते हैं। यह कृतघ्नी शरीर कभी भी साथ नहीं देता है। तुम्हारे द्वारा नरक में पूर्व में जो उग्र वेदना सहन की गयी है, उसकी लाखवें अंश के समान भी इस अग्नि से होने वाली वेदना नहीं है। जो तुमने पूर्व में तिर्यंच अवस्था में अनेक बार अनुभव की है, वह साक्षात् पीड़ा अभी वर्तमान में तिर्यंचों में देख रहे हो, अब इस अग्नि से उत्पन्न पीड़ा को सहनकर मनुष्य धर्म को प्राप्त करके जब तक तुम जीवित हो, तब से प्रस्थान के समय तक सुमनवाले होकर अर्हत् वचन का स्मरण करो। जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, संसार में अकेला ही भ्रमण करता है
और अकेला ही सिद्धि को प्राप्त करता है। ज्ञान, श्रद्धान् व चारित्र को अब मैं श्रद्धता हूँ। जब तक जीवित हूँ, तब तक सारे भव-दोहद (इच्छाओं) का त्याग करता हूँ। हिंसा, मृषावाद, स्तेय, अब्रह्म तथा परिग्रह एवं चारों प्रकार के आहार का अब मैं मन-वचन-काया से त्याग करता हूँ। सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ। सभी जीव भी मुझे क्षमा करे। मेरा सभी जीवों पर मैत्री भाव है। मुझे किसी से भी वैर नहीं है। मेरे जिन अपराधों को सर्वज्ञ जानते हैं, उन सभी अपराधों की अहँत साक्षी से अनेक प्रकार से आलोचना करता हूँ। छद्मस्थपने से या मूढचित्त के द्वारा जिनका स्मरण नहीं है, पर जो सत्ता में रहे हुए हैं, उन सभी का इस समय मिथ्या दुष्कृत देता हूँ। उस दुःकृत की निन्दा करते हुए तथा सुकृत्य का अनुमोदन करते हुए सिद्धि सोपान के देशभूत चतुःशरण का आश्रय लेकर सिद्ध-साक्षी से आलोचना करके, पंचनमस्कार के स्मरणपूर्वक दुष्कर्म को पतला करके चाणक्य स्वर्ग में चला गया।
एक बार सुबन्धु ने राजा से कहा कि देव! मुझे कृपा करके चाणक्य का घर प्रदान कीजिए। राजा ने वैसा ही किया। सुबन्धु सर्वशून्य ग्रह के अन्दर गया। वहाँ संपूर्ण घर में एक ही द्वार पर्दे से ढका हुआ देखा। उसने विचार किया कि यहाँ चाणक्य का सर्वस्व होगा। उसने द्वार खोला, तो एक सुगंध से युक्त एक छोटी पेटी दिखायी दी। हु! बीज रूप यहाँ कुछ है, इस प्रकार भावी नीति का विचार करते हुए उसको भी खोलकर देखते हुए पत्र सहित गन्धक को देखा। अति सुरभि वाली उस गंध को सूंघकर पत्र को पढ़ते हुए गन्ध से होने वाली घ्राण की उत्तर क्रिया को
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