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सम्यक्त्व प्रकरणम्
सम्प्रति राजा की कथा
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देदिप्यमान आकर्षणों से मुक्त ऐसे मनोहर विहार के द्वारा पृथ्वीतल को पावन करते हुए क्षमामूर्ति विजयसूरि वहाँ पधारे। जंघाबल के क्षीण हो जाने से वृद्धावास करने की इच्छा से तथा भावी दुर्भिक्ष को जानकर अपने शिष्य को अपने पद पर स्थापित किया । विद्या आदि अतिशयों को एकान्त में उसे बताया। गच्छ की निधि को समर्पित करके कहा- तुमलोग सुभिक्ष वृत्ति वाले देश में चले जाओ। गुरु के स्नेह - अनुराग के कारण नये आचार्य की आँखों में धूल झौंककर दो क्षुल्लक मुनि तो लौटकर गुरु- सन्निधि में आ गये। गुरु ने कहा - वत्सों ! तुम्हारे द्वारा अनुष्ठित यह कार्य युक्त नहीं है। यहाँ तो मृत्यु का सहोदर विकराल दुष्काल पड़नेवाला है। उन दोनों ने कहा प्रभो! आपके बिना हमारा वहाँ मन नहीं लगता । यहाँ पूज्य के समीप रहते हुए हम सब कुछ सहन कर लेंगे। इस प्रकार रहने पर वहाँ बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। उस दुष्काल ने दानधर्म को मन्द तथा यमगज उत्साहित बनाया। जहाँ परस्पर लोगों द्वारा नित्य ही किसी के नहीं देखते हुए रत्न रखकर उदर अन्न धरा जाता था। उस समय दुर्भिक्ष रूपी राजा द्वारा एक छत्र साम्राज्य की वाञ्छा करते हुए रंक व राजा सभी के अपने माण्डलिकों की तरह नियोजित कर दिया था। घर-घर में बैठे हुए या खड़े हुए भिक्षुकों को दुःकाल रूपी राजा के भट्टपुत्र के समान उत्कट भिक्षा नहीं मिलती थी।
इस प्रकार के काल में गुरु जो भी प्राप्त करते थे, उस भव्य भिक्षा को स्नेहपूर्वक उन दोनों क्षुल्लकों को दे देते थे। तब क्षुल्लकों ने सोचा- यह अच्छा नहीं लगता। क्योंकि गुरु के खेदित होने पर हमारी क्या गति होगी । जिस पुरुष से कुल सनाथ होता है, उसकी तो यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। कहा भी है -
अरकाः स्युः किमाधारास्तुम्बे नाशमुपेयुषि ।
चक्र के नाभि भाग रूपी तुम्ब का नाश हो जाने पर आरों का आधार क्या है ?
दाँत चलित हो जाने पर, मद के झर जाने पर तथा जर से जर्जरित हो जाने पर भी अगर वह यूथपति है, तो ही यूथ सर्वथा सनाथ होता है। उन पूज्याचार्य द्वारा नये आचार्य को उस रात्रि में दी गयी अंजन योग विधि उन दोनों क्षुल्लकों ने सुनी थी। वह विधि हम करें। यह सोचकर उन दोनों ने योग किया और योग से विधि सिद्ध हो गयी। वे दोनों अदृश्य होकर चन्द्रगुप्त साथ जीमने के लिए गये । उसे खाते हुए देखकर उसके दोनों पार्श्व बैठ गये और खाकर चले गये। इस प्रकार प्रतिदिन वे दोनों उसी प्रकार वहाँ भोजन करने लगे। अन्य दिनों की अपेक्षा राजा का भोजन-परिमाण घट जाने पर अजीर्ण के भय से वैद्य लोग राजा को शीघ्र ही भोजन पर से उठा देते थे। इस प्रकार एक जन के योग्य भोजन को तीन-तीन जनों द्वारा खाये जाने से तृप्त न होने से राजा कृश होने लगा। लेकिन वह लज्जा के कारण कुछ भी नहीं बोलता था । कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की तरह चन्द्रगुप्त को कृशता युक्त देखकर चाणक्य ने पूछा - वत्स! क्या तुम्हारे भी दुष्काल लग गया है। उसने कहा- नहीं, आर्य! मैं तृप्त होता हूँ। तब चाणक्य ने विचार किया कि दुष्काल के कारण कोई सिद्ध पुरुष निश्चित ही इसका आहार हरण करता है। दूसरे दिन चाणक्य ने भोजन-मण्डप में ईंट का चूर्ण बिछवा दिया। उस चूर्ण पर दो बालकों की पद-पंक्ति मढ़ गयी । तब मन्त्री ने निश्चय किया कि जरूर ये दोनों बालक सिद्धांजन है । अतः द्वार बन्द करके शीघ्र ही भोजन- मण्डप में धुँआ करवा दिया। धूम के कारण आँखें जलने से उसमें से पानी बहने लगा । और अश्रुओं के साथ-साथ अञ्जन भी धुल गया। तब मन्त्री ने राजा के पास में दो क्षुल्लकों को भोजन करते हुए देखा। इन दोनों के कारण मैं कृश हुआ हूँ। मैंने तकलीफ पायी है - इस प्रकार राजा थोड़ा दुर्मना हो गया। शासन की हीलना न होवे - यह सोचकर मन्त्री ने कहा - हे वत्स! मन में कलुषता क्यों धारण करते हो । अब ही तुम्हारी शुद्धि हुई है, क्योंकि एक ही भाजन में तुमने बाल-मुनियों के साथ भोजन किया है। कौन गृहस्थ साधु के साथ एक ही पात्र में जीमने का लाभ प्राप्त करता है? अतः तुम ही पुण्यात्मा हो। तुम्हारा जीवन सफल हो गया है। जो महर्षि भोजन करते हुए देखने के लिए भी प्राप्त
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