Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 345
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्प्रति राजा की कथा दोनों को नन्द साम्राज्य प्राप्तकर सभी कुछ विभाजित करना है। पर्वत ने उसी समय उससे विवाह करने का महोत्सव प्रारम्भ किया। मंगल बाजे तीव्र स्वर में बजने लगे। वेदिका के अन्दर ज्वलन पदार्थों द्वारा संहार शिखा जलायी गयी। देवों के योग्य धान्य आदि कणों की आहुति रुक-रुककर दी जाने लगी। सुशोधित लग्न होने पर भी मंगल नीचे आ गया। लग्न-वेला में सर्प के समान कन्या के हाथ में हाथ लगते ही वह शबराधिपति पर्वत विष के आवेग से तत्क्षण मूर्छित हो गया। भाई! भाई चन्द्रगुप्त! तात चाणक्य! हे मित्र! हे अमात्य! मरता हूँ। मरता हूँ। रक्षा करो, रक्षा करो। इस प्रकार वेदनात होकर चिल्लाने लगा। जब चन्द्रगुप्त ने उसका प्रतिकार करना प्रारम्भ किया, तो चाणक्य ने भृकुटि चढ़ाकर उसे मना करते हुए कहा - अभी भी मुग्ध बने हो। हे राजन्! क्या नीति नहीं जानते? अर्धराज्यहरं मित्रं यो न हन्यात् स हन्यते। अर्थात् अर्ध राज्य का हरण करनेवाले मित्र को जो नहीं मारता, वह खुद मारा जाता है। तब वह भी व्यावर्त्तन आदि द्वारा समय व्यतीत करने लगा। इस प्रकार त्राण नहीं किये जाने पर त्रुटित प्राण वाला पर्वत मर गया। इस तरह संपूर्ण राज्य का अधिपति चन्द्रगुप्त बन गया। राज्य-नाटक का सूत्रधार चाणक्य महामंत्री बना। तब आगमचरज्ञ होने से नन्द के पुरुष सभी ओर से विद्या सिद्ध दुर्धर पुरुष की तरह चौये कर्म करने लगे। उनसे नगर की रक्षा के लिए चारों ओर नगर रक्षक को खोजने के लिए चाणक्य भी वेष बदलकर सभी जगह घूमता था। उसने नलदा नामके एक जुलाहे को बुनते हुए देखा। उस समय खेलते हुए उसके पुत्र को मत्कोटक ने डस लिया। रोता हुआ वह अपने पिता के पास आया, तब उस यमराज के भाई ने उसके बिल को खोदकर शीघ्र ही उन सभी को भस्म कर डाला। चाणक्य ने उस व्यक्ति को योग्य माना और घर चला गया। फिर क्रुरता के सरताज उसको बुलाकर नगर-रक्षक नियुक्त कर दिया। उसने नगर के सभी चोरों से कहा कि मेरे नगर-रक्षक रहते तुम लोग पूरे राज्य में स्वेच्छापूर्वक चोरी करो। विश्वास दिला करके उन सभी को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करके द्वार ढककर आग लगाकर उन्हें भस्मसात् कर दिया। तब पुर के स्वस्थ हो जाने पर किसी ने कहा कि चोरों के साथ ही चोरी भी जल जाने से उसका नाम भी नहीं सुनायी देता। ___पहले एक गाँव में भिक्षा लेश मात्र भी उपलब्ध नही होती थी। चाणक्य ने वहाँ एक क्षुद्र आदेश भिजवाया - हमारे भूत व वंश ग्राम में रहते हैं। अतः आम्रवन का छेदन करके वंश वनों द्वारा वर्तन किया जाये। गाँव वालों ने विचार किया कि भूतों के द्वारा वंश रक्षण घटित नहीं होता है, किन्तु वंश-समूहों के द्वारा आम्रवनों का परिरक्षण घटित होता है। परमार्थ को नहीं जानते हुए अपनी बुद्धि से विचार करके उन्होंने वंशों का छेदन करके आम्र-वन के वर्तन को धारण किया। तब आदेश के विपरीत कार्य करने के बहाने से चाणक्य ने महान्ध गज की तरह कृत्यअकृत्य का चिन्तन किए बिना बाल-वृद्ध सहित उस ग्राम के द्वारों को चारों ओर से बंद करके द्वैपायन ऋषि द्वारा द्वारिका को जलाने की तरह क्रुध होकर उस गाँव को जला दिया। फिर अपनी पत्नी को राज्य में लाकर कहा - हे दयिता! मैंने तुम्हारे लिए ही इस सारे साम्राज्य का उपक्रम किया है। अपमान रूपी विष से दुःखित उस दुःख से तुम अब ऐश्वर्य रूपी अमृत द्वारा निवर्तित होओ। हे महाभागे! अब इन्द्राणी के समान सुख का अनुभव करो। चाणक्य के चरित्र को सुनकर उसका श्वसुर भी डर-डरकर आकर चाणक्य को इस प्रकार बोले - हे जामाता! हमारे पुत्र के विवाह पर निर्धन की पत्नी जानकर अपनी पुत्री का भी हमने सत्कार नहीं किया। वह वास्तव में आपका ही तिरस्कार हमारे द्वारा किया गया। अतः एक बार हमारा अपराध क्षमा कीजिए? हम पर कृपा कीजिए। चाणक्य भी उन पर प्रसन्न हो गया। क्योंकि - . 296

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