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सम्प्रति राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् इस नीति का स्मरण करते हुए चाणक्य ने नन्द राज्य की प्राप्ति में संलग्नक उसके वचन को ग्रहण किया। चन्द्रगप्त के साथ उसने अपनी सेना को एकत्रितकर हिमवत कट नामक पर्वत पर गया। वहाँ शबर-अधिपति पर्वत नामक व्यक्ति चाणक्य का सहायक था, जिसकी मित्रता की कांक्षा से वहाँ आया। चाणक्य ने एक बार उससे कहा - नन्द की श्री को उन्मूलित करके हम दोनों विभाग करके उसे ग्रहण करेंगे। उसने भी वह स्वीकार कर लिया। संपूर्ण सेना समूह के साथ नन्द मेदिनी को अपना बनाने के लिए चाणक्य ने एक समृद्ध नन्दपुर को चारों ओर से घेर लिया। उसमें से आने के लिए कोई भी शक्य नहीं था। फिर चाणक्य ने परिव्राजक का वेश बनाकर उस नगर का वास्तु देखने के लिए नगर में प्रवेश किया। उसने घूमते हुए वहाँ सुप्रतिष्ठित इन्द्र कुमारियों को देखा। तब विचार किया कि इन्हीं के प्रभाव से ही निश्चय ही यह नगर अभङ्ग है। घिरे हुए नगर के उद्विग्न जनों के द्वारा पूछे जाने पर
कि इन्द्र कमारियाँ को उखाड़े जाने पर ही बाहर का घेरा स्वतः ही घट जायगा। यह मैंने इसके लक्षणों से जाना है। मैं यह विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि इनका उत्पाटन आरम्भ करते ही यह अवरोध थोड़ा सा भी निवर्तित हो जायगा। तब उनके द्वारा उखाड़ना प्रारम्भ किये जाने पर रोध थोड़ा पीछे लौट गया। तब विश्वास करके लोगों ने वहाँ कुआँ खोद डाला। तब उस नगर से बहुत सारा वैभव लेकर संपूर्ण परिधि को जीतकर वे दोनों पाटलिपुत्र में आये। तब चन्द्रगुप्त तथा पर्वत के सैनिकों द्वारा सर्व ओर से वेष्टित दत्त पोत को आवेष्टित करने के समान हो गया। दर्प से नन्द भी प्रतिदिन निकल-निकलकर महा रण करने लगा। पर उसका बल टूटने लगा। उसने धर्मद्वार की याचना की। ब्राह्मण चाणक्य ने भी उसको दन्तकार की तरह अर्थात् दीन पर कृपापूर्वक धर्मद्वार दे दिया, क्योंकि
नीतिरेषा ही भूभुजाम् । राजाओं की यही नीति है।
फिर चाणक्य ने नन्द को उपालम्भ दिया कि तुमने तो तब अर्धचन्द्र के सिवाय मुझे कुछ नहीं दिया था। पर हे नन्द! आज मैं तुम्हें जीवन दान देता हूँ। एक रथ के द्वारा जो-जो तुम्हें रुचता है, वह-वह लेकर यहाँ से निकल जाओ। नन्द अपने बल-विक्रम के क्षीण हो जाने से विषाद को प्राप्त हुआ। उसने विचार किया - पापिनी, चंचल बिजली की तरह चपला लक्ष्मी को धिक्कार है। फिर नन्द दो पत्नियों तथा एक प्रिय पत्री तथा स नों को रथ में भरकर रवाना हआ। पर पात्र भता एक विषकन्या को घर में छोड़ दिया। इस विचार से कि चन्द्रगप्त इसके साथ विवाह करके मर जाय। सुवर्ण, रत्न, माणिक्य, वस्तु, वस्त्र आदि सभी शत्र के न हो जायें, अतः सभी पौरादि जनों को देकर वह चला गया। चन्द्रगुप्त को प्रवेश करते हुए देखकर अस्त हुए सूर्य की तरह निकलते हुए राजा नंद की पत्री ने चंद्रगप्त को देखकर उस पर सर्य विकासी कमल की तरह प्रसन्न होकर उसे देखने लगी तब नंद ने कहा - हे पापे! तू वैरी को देखती है! अगर मेरे राज्य हरण करने वाले में अनुरक्त हो, तो, जाओ इसको पति मानकर सेवा करो। तब पिता के रथ का त्याग करके चन्द्रगुप्त के रथ पर आरोहण करते ही नन्द -लक्ष्मी की तरह भार से नव चक्र-आरकट गये। अपशकन मानते हए जब चन्द्रगप्त उस कन्या को हटाने लगा, तो चाणक्य ने कहा - यह तुम्हारा शकुन है। इसका निषेध मत करो।
भग्न आरक तुम्हारे भावि नवान्वय रूप (नौ पेदी तक) राज्य का प्रमाण है। तब उसे रथ पर चढ़ाकर चन्द्रगुप्त ने नगर में प्रवेश किया। तब चाणक्य ने कहा - नन्द! मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई। यह देख! मैं अपनी चोटी खोलता हूँ। यह कहकर उसके देखते ही देखते चाणक्य ने अपनी चोटी खोल दी। नन्द बाहर निकला और उन्होंने नन्द के घर में प्रवेश किया। वहाँ पर कन्या को देखकर चन्द्रगुप्त व पर्वत दोनों ही उस पर अनुरक्त हो गये। चाणक्य ने चिह्नों से उसे विषकन्या जानकर चन्द्रगुप्त से कहा - चन्द्रगुप्त! तुम्हारी एक राजकन्या हो गयी। इसे पर्वत को लेने दो। तुम
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