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सम्प्रति राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
स्मरण हो आया - "यह चाणक्य किसी बिम्ब के अन्तरित राज्य करेगा ।" सूर्य पश्चिम में उदित हो सकता है। पृथ्वी उलटी हो सकती है। मेरु पर्वत की चूला भी चलित हो सकती है, पर आर्य सन्त के वचन कभी चलित नहीं होते । तब बिम्ब के निरीक्षण के लिए परिव्राजक वेष को धारण किया। वह नन्द के राज्य के मयूरपोषक नामक ग्राम में घूमता हुआ आया । भिक्षा के लिए उसने एक बड़े से घर में प्रवेश किया। उद्विग्न जनों ने उससे पूछा भगवन्! क्या कुछ जानते हैं? उसने कहा हाँ ! सब कुछ जानता हूँ। तुम कहो । तब महत्तर ने कहा- मेरी पुत्री के चन्द्र- पान के दोहद को पूर्ण कीजिए। क्योंकि इस दोहद के पूर्ण न होने से वह यम के मुख में जाने के समान हो गयी है। अतः इसका दोहद पूर्णकराकर आप इसे जीवन दान दीजिए ।
"इसके गर्भ में कोई राज्य के योग्य पुरुष अवतीर्ण हुआ है" दोहद से यह ज्ञात हो जाने से चाणक्य ने महत्तर को कहा - अगर तुम इसका गर्भ मुझे दोगे, तो मैं इसके दोहद को पूर्ण करूँगा । उन्होंने सोचा - जीवित रहेगी तो पुनः गर्भवती हो जायगी । अतः उसकी शर्त स्वीकार कर ली। उसने उस शर्त की साक्षी करके फिर एक वस्त्र का मण्डप बनवाया। उसके ऊपर एक छिद्र रखा। फिर पूर्णिमा की रात्रि में विधि प्रारम्भ की। उस छिद्र के नीचे (मण्डप के अन्दर) अमृत से भी अधिक मधुर द्रव्य को संस्कारित खीर से युक्त करके थाली रखी। उस थाली को उस छिद्र के नीचे रखने से उसमें चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब झलकने लगा । तब चाणक्य ने उस पुत्री से कहा- बेटी! तुम्हारे लिए मैं मंत्रों द्वारा आकर्षित करके चन्द्रमा को यहाँ लाया हूँ। अतः इसका पान करो। उसे चन्द्र मानकर वह हर्षपूर्वक जैसे-जैसे उसका पान करने लगी, वैसे-वैसे ऊपर रहे हुए पुरुष उस छिद्र को थोड़ा-थोड़ा ढकने लगे। यह गर्भ पूर्ण है या नहीं यह जानना चाहिए। अतः परीक्षा के लिए आधा पीने पर उसने कहा- तुम इतना लोगों के लिए छोड़ दो। उसने कहा नहीं। तब चाणक्य ने कहा - तब तुम पीवो। मैं उसको अन्य लोगों के लिए स्थापित करूँगा इस प्रकार श्रद्धा पूर्ण की।
फिर द्रव्य का उपार्जन करने के लिए धातु की खान में गया । धातुवाद के द्वारा बहुतसारा द्रव्य उपार्जित करके पुनः आया। तब चाणक्य ने सर्व लक्षणधारी पुत्र को बाहर बैठे हुए, राजनीति से खेलते हुए देखा। नगर की रचना संपूर्ण सभा से युक्त सिंहासन पर बैठकर बहुत सारे बच्चों को सामन्तादि बनाकर उनसे घिरा हुआ देखा। - देव ! देशादि को बख्शीश में देते हुए, दर्प से दुर्धर उसे देखकर चाणक्य तुष्ट हुआ । उसकी परीक्षा के लिए कहा - मुझे भी कुछ दीजिए। यह सुनकर उसने कहा हे प्रिय ! उन चरते हुए गोकुलों को तुम ग्रहण करो। उसने कहा सबको ग्रहण करते हुए मुझे गोकुलों के स्वामी क्या नहीं मारेंगे। उस बालक ने कहा- क्या तुम नहीं जानते कि वीरभोग्या वसुन्धरा ।
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अर्थात् पृथ्वी वीरभोग्य होती है।
औदार्य, शौर्य तथा विज्ञान से उस बालक को जानते हुए भी किसी बच्चे से पूछा यह किसका पुत्र है? उसने कहा - महत्तर का चन्द्रगुप्त नामक दौहिता है । गर्भ में रहते हुए ही इसे किसी परिव्राजक को दे दिया गया है। तब चाणक्य ने हर्षपूर्वक चन्द्रगुप्त को कहा - आओ ! आओ! हे वत्स! जिसके तुम हो, वह मैं ही हूँ। तुम को वास्तव मैं मैं राजा बनाऊँगा । इस खेल - खेल के राज्य से तुम्हारा क्या ? इस प्रकार कहकर चाणक्य उसके पिता के पास से चन्द्रगुप्त को लेकर अन्यत्र चला गया। उस धन के द्वारा उसने चतुरंगिणी सेना प्राप्त की । चन्द्रगुप्त को राजा बनाकर स्वयं मंत्री बन गया। सम्पूर्ण समूह के साथ जाकर नन्द के पत्तन को काराग्रह की तरह घेर लिया। उसके खेतों में प्रवेश करके धान्य आदि को रौंद डाला। नन्द भी सर्व सामग्री से युक्त होकर नगर से बाहर निकला । सागर को घेरे हुए मन्दर पर्वत की तरह उसने उनकी सेना को ग्रस लिया । नन्द की सेना ने चन्द्रगुप्त चाणक्य की सेना को परास्त कर दिया। हवा से बिखरे हुए बादलों की पंक्ति की तरह सभी दिशा-विदिशा में भाग गये। तब चन्द्रगुप्त व चाणक्य
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