Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 340
________________ सम्प्रति राजा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् की थी। तब गुरु ने उस याचक के विषय में श्रुत ज्ञान द्वारा उपयोग लगाया तो जाना कि निश्चय ही भविष्य में यह प्रवचन का महान आधार बनेगा। यह जानकर गुरु ने उससे कहा - हे भद्र! अगर तुम व्रत ग्रहण करोगे, तो तुम्हारा मन-इच्छित तुम्हें प्रदान करूँगा। उसने कहा - प्रभु! ऐसा ही हो। क्योंकि कः कल्याणं न वाञ्छति ? कल्याण की चाहना किसे नहीं होती? तब उसी समय दीक्षा देकर उसे भोजन के लिए बिठाया गया। उस प्रकार के सरस आहार को उसने आकण्ठ भोग लिया। हवा से भरी हुई धमनी की तरह उसका पेट फूल गया। श्राद्ध में जीमे हुए ब्राह्मण की तरह मध्याह्न समय में वह क्षण भर में ही सो गया। अति स्निग्ध तथा अति मात्रा में भोजन करने से उसे अजीर्ण हो गया। भयंकर शूल की वेदना से विमूद चित्त वाला होने से उसे नींद में ही विसूचिका हो गयी। तब गुरु ने पूछा - वत्स! तुम और कुछ खाओगे? उसने कहा - प्रभो! कल्पवृक्ष की सन्निधि में भूख का क्या? लेकिन इस समय यही याचना करता हूँ कि मेरी आपके चरणों में ही गति हो। इस प्रकार बोलते हुए अत्यधिक वेदना से आयु क्षीण हो जाने से वह देहातीत हो गया। अव्यक्त सामायिक के प्रभाव से और व्रत की मनोमन अनुमोदना करने के फल रूप में वह भिखारी जहाँ पुत्र रूप से पैदा हुआ, उसका अन्वय दृष्टान्त अब कहा जाता है। ___ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में भूषण रूप, खिला हुआ, प्रतिद्वन्द्री रहित श्री गोल्लदेश नामक राज्य सुखों की निवास - भूमि रूप था। उस देश में चणक नामक विख्यात ग्राम था। अत्यधिक धान्य से मनोहर तथा गो रस से धनी सुधाकाव्य की तरह वह ग्राम था। पवित्र बुद्धि वाला चणी नामक ब्राह्मण वहाँ निवास करता था। वह अर्हत् धमी, विशुद्ध आत्मावाला, श्रद्धालु तथा उत्तम श्रावक था। उसके हृदय-ग्राम में नित्य ही विद्यास्थान उत्कर्ष को प्राप्त था। जिसके चार -दशाएँ भी निर्बाध रूप से कुटुम्बी की तरह निवास करती थी। एक बार वहाँ श्रुतसागर सूरि पधारे। उसके घर की ऊपरी भूमि में नृप के आस्थान की तरह विराजे। तब उसकी पत्नी चणेश्वरी ने एक बालक को जन्म दिया। पूर्व दिशा में सूर्य की स्फुरति होती हुई प्रभा की तरह उसके मुखाग्र में जन्म से ही दो दाढ़ें थी। बारहवें दिवस पर उनका जन्मोत्सव करके महान् उत्सव द्वारा उसका चाणक्य नाम रखा गय। फिर चणी ने उस गुरु को नमस्कार करके क्रमशः अपने उस पुत्र की दाढों का वृतान्त कहकर उसका फल पूछा। अतीन्द्रिय ज्ञान से तीनों काल है समक्ष जिनके ऐसे गुरु ने कहा कि यह महामति संपन्न महाराज होगा। तब चणी ने घर में जाकर विचार किया कि क्या मेरा भी पुत्र अनर्थकारी राज्य को करके अधम गति में जायगा? तब चणी ने उसकी दाढों को वालक-रश्मि से (काणस से) घिसकर गुरु से यथाकृत तद् स्वरूप कहा। गुरु ने कहा - भद्र! यह तुमने क्या किया? जिसने जो कर्म उपार्जित किया है, उसे वह भोगना ही पड़ता है। यद्यपि तुमने इस की दाढों को घिस दिया है, फिर भी तुम्हारा यह पुत्र किसी बिम्ब को (दूसरे व्यक्ति को राजा बनाकर) रखकर उसके माध्यम से विशाल राज्य का संचालन करेगा। ___ वह चाणक्य शैशव काल का त्यागकर बड़ा हुआ। सभी विद्याएँ उसने धन की तरह आचार्य से लभ्य की। फिर चन्द्रमा की चाँदनी की तरह पुत्र के अनुरूप एक ब्राह्मण कन्या देखकर चणी ने उसे विवाहित किया। कालान्तर में माता-पिता की मृत्यु के बाद भी वह बुद्धिमान बरसात में वितृष्ण की तरह सदैव स्थित रहा। एक बार उसकी पत्नी अपने भाई के परिणय-उत्सव में अपने पिता के घर गयी। उसकी दूसरी बहन भी वहाँ आयी। उसका पति महाइभ्य तथा महा-लक्ष्मी आदि से वैभव सम्पन्न था। माता-पिता आदि सभी उसका अत्यन्त मान रखते थे। कोई उसे अभ्यंगन करती थी, तो दूसरी उसके उबटन लगाती थी। कोई उसे नहलाती थी, तो कोई उसका विलेपन करती थी। कोई उसके पाँवों में संस्कार करती थी, तो कोई उसके अलंकृति बाँधती थी। कोई उसे पंखा झलती 291

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