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सम्यक्त्व प्रकरणम्
गुणस्थान कालमान - गति द्वार लहु पंचक्खर चरिमं तइयं छट्टाइ बारसं जाव । इय अट्ठगुणट्ठाणा अंतमुहुत्ता य पत्तेयं ॥३॥ (प्रव. सा. गा. १३०७, १३०८, १३०९) मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती अभवी जीवों की स्थिती अनादि-अनंत तथा भवी जीवों की अनादि-सान्त होती
सास्वादन की जघन्य १ समय उत्कृष्ट ६ आवलिका मात्र स्थिति होती है। चौथे गुणस्थान की तेतीस सागरोपम से कुछ अधिक स्थिति होती है। पाँचवें व तेरहवें गुणस्थान की देशे ऊणी क्रोड पूर्व की स्थिति होती है। चौदहवें गुणस्थान की स्थिती पाँच लघु अक्षर उच्चारण करने जितनी होती है।
तीसरे, छट्टे, सातवे, आठवे, नौवें, दसवें ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थान की प्रत्येक की स्थिती अन्तर्मुहूर्त की होती है।
और भी, कुछ विशेष है, जो इस प्रकार है - मिच्छे सासाणे वा अविरयसम्मंमि अहव गहियम्मि । जंति जीया परलोए सेसिक्कारस गुणे मुत्तुं ॥१।। (प्रव. सा. गा। १३०६)
ग्यारह गुणस्थान को छोड़कर जीव मिथ्यात्व, सास्वादन अथवा अविरतसम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थान वाले जीव परलोक में जाते है।।२७-२८।।२३३-२३४।।
जीवस्थान, योग, उपयोग, गुणस्थान आदि कहे गये। अब इन्हीं को गति आदि द्वारों में विचार करते हुए कहते
गइ इंदिए य काए जोए येए कसायनाणे य । संजम-दंसण-लेसा भयसम्म सन्निआहारे ॥२९॥२३५॥ गति में नरक गति आदि चार, इन्द्रिय में एकेन्द्रिय आदि पाँच, काय में पृथ्वीकाय आदि छः, योग में मन आदि तीन, वेद में स्त्री आदि तीन, कषाय में क्रोध आदि चार, ज्ञान में मति आदि पाँच तथा उपलक्षण से मतिअज्ञान आदि तीन, संयम में देश संयम, सामायिक आदि असंयम आदि सात, दर्शन में चक्षुदर्शन आदि चार, लेश्या में कृष्ण आदि छः, भवी-अभवी दो, सम्यक्त्व में क्षायोपशमिक आदि छः, संज्ञी-असंज्ञी दो तथा आहारक-अनाहारक ये दो इस प्रकार मूल में १४ तथा उत्तर भेद की अपेक्षा ६२ होते हैं।
इनमें क्या है - तो कहते हैं - इन मार्गणा-स्थानों में जीव-गुण, योग-उपयोग आदि आते हैं - तन्त्र रचना की विचित्रता से यह वाक्य कहा गया है। नाना प्रकार के छन्द विशेष से गुम्फित है।
जिसके द्वारा जीवादि पद का विचार किया जाता है, वह मार्गणा है। उसके स्थान मार्गणा-स्थान कहलाते हैं। इन मार्गणा स्थानों में जीव, योग, उपयोग आदि हैं। जीव में चौदह गुणस्थान योग-उपयोग आदि का विचार किया जाता है। जैसे - किस गति में कितने जीव स्थान है अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय गुणस्थान अथवा मिथ्यादृष्टि आदि?
गति में जीवस्थान इस प्रकार है - देव-नरक गति के पर्याप्त-अपर्याप्त रूप दो संज्ञी है। मनुष्यगति में संज्ञी द्वय, अपर्याप्त असंज्ञी है। तिर्यंचगति में सभी चौदह जीवभेद है।
एकेन्द्रिय में पर्याप्त-अपर्याप्त-सूक्ष्म तथा बादर एकेन्द्रिय रूप चार जीव स्थान हैं। बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय में पर्याप्त व अपर्याप्त स्व-स्वरूप में दो स्थान हैं। पंचेन्द्रिय में पर्याप्त अपर्याप्त संज्ञी असंज्ञी रूप चार स्थान हैं।
पाँच प्रकार के स्थावर काय में पर्याप्त-अपर्याप्त-सूक्ष्म व बादर एकेन्द्रिय रूप चार स्थान हैं। त्रसकाय में शेष
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