Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 332
________________ सम्यक्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् हेतुरूप काल होता है। वर्ण, गन्ध आदि लक्षणवाला पुद्गल है। पुद्गल चार प्रकार का है - स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु पुद्गल यहाँ शंका होती है कि स्कन्ध आदि भेद पहले ही कहे जा चुके हैं। वह सत्य है, पर पुद्गल के भेद रूप से नहीं कहे गये थे । परमाणु अर्थात् ज्ञानी की दृष्टि में भी जिसके दो भाग न हो ।। ३२ ।।२३८ ।। अब काल के स्वरूप को कहते हैं. - समयावलियमुहुत्ता दिवसा पक्खा य मास वरिसा य । भणिओ पलियासागर ओसप्पिणिसप्पिणी कालो ॥३३॥ (२३९) समय, आवलिका, मुहूर्त्त, दिवस, पक्ष, मास, वर्ष, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि काल जानना चाहिए । सबसे सूक्ष्म काल-विशेष समय है। जो श्रुत में कहे गये पट्ट साटिका दृष्टान्त से जानना चाहिए । अर्थात् जीर्ण वस्त्र को फाड़ने के उदाहरण से समझना चाहिए। असंख्याता समय के समूह को आवलिका कहते हैं। मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, वर्ष आदि प्रतीत ही है । पल्योपम का प्रमाण इस प्रकार है - एक योजन लम्बा एक योजन चौड़ा पल्य है, उसको सात रात्रि के जन्मे हुए युगलिक व्यक्ति के शिर के केशाग्र से पूरित किया जाय। फिर सौ-सौ वर्ष पूर्ण होने पर एक-एक केश को निकाला जाय। वह पल्य जितने समय में खाली हो, वह काल पल्योपम कहलाता है। ऐसे दस कोड़ाकोड़ी पल्योपम का एक सागरोपम होता है । अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी का मान पूर्वोक्त के समान है। काल का यहाँ संबंध होने से कहा गया है ।। ३३ ।।२३९ ।। इस प्रकार अजीव तत्त्व कहा गया अब जो शेष है, उन्हीं को बताते हैं - सुग्गइमग्गो पुन्नं दुग्गइमग्गो य होड़ पुण पावं । कम्म सुहाऽसुह आसव संवरणं तस्स जो नियमो ॥ ३४ ॥ ( २४० ) सुगति की ओर ले जानेवाला मार्ग पुण्य है तथा दुर्गति की ओर ले जानेवाला मार्ग पाप है। शाताअशातावेदनीय रूप शुभ-अशुभ कर्म है। इनको सद् असद् व्यापार द्वारा नवीन रूप से उपार्जित करना आश्रव है। इनको रोकना संवर है। उसका जो नियमन है वह निरोध है | | ३ ४ || २४० ॥ तथा - तवसंजमेहिं निज्जर पाणिहाईहिं होइ बंधुत्ति । कम्माण सव्यविगमो मुक्खो जिणसासणे भाणिओ ॥३५॥ ( २४१) तप संयम से निर्जरा होती है। प्राणिवध आदि से बंध होता है। कर्मों का संपूर्ण नाशरूप मोक्ष जिनशासन में कहा गया है। तप - संयम से संयमियों के सकाम कर्म-निर्जरा होती है। नारक, तिर्यंच आदि के शीत- ऊष्ण-क्षुधा पिपासा आदि क्लेश रूपी विपाक द्वारा कर्म निर्जरा यहाँ नहीं कही हुई होने पर भी अकाम निर्जरा रूप से जानना चाहिए ।। ३५ ।। २४१ । इस प्रकार तत्त्वों का स्वरूप कहा गया । इनका श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है - अब यह कहते हैं - जीवाइनयपयत्थे जो जाणड़ तस्स होइ सम्मतं । भायेण सद्दहंते अयाणमाणेऽवि सम्मत्तं ॥३६॥ (२४२) जीव आदि नौ पदार्थों को जो जानता है और उसका ज्ञान व उस पर श्रद्धान् के बिना सर्व निष्फल है - इस प्रकार जो श्रद्धा करता है, उसमें सम्यक्त्व होता है, पर केवल, ज्ञान मात्र से सम्यक्त्व नहीं होता। उस प्रकार के शुद्ध परिणाम रूप भाव से जो श्रद्धा करता है, जिनोक्त रूप ही तत्त्व है - इस प्रकार मानता हुआ तथा नहीं 283

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