Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 334
________________ तामलि तापस की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् रण की खुजली युक्त मजबूत हाथों वाला सुरसेन शीघ्र ही नजदीकी मित्रों के साथ राजा की बिना आज्ञा के युद्ध करते हुए शब्दों को, ध्वनि को सुन-सुनकर शब्दवेधी बाणों द्वारा दुश्मनों के प्राणों को डंसने लगा। किसी तरह दुश्मनों में कुमार को विगत-लोचन जानकर निःशब्द उसके पास जाकर उसे हाथ से पकड़ लिया। यह सुनकर वीरसेन शीघ्र ही कवच धारणकर यम के समान क्रुध होता हुआ, प्रलय अग्नि की तरह जलता हुआ वह साहसी शीघ्र ही समग्र वैरियों को दुर्दान्त दुर्द्धर्ष केसरी की तरह हाथी रूपी शत्रुओं को मारने लगा। उस वीर ने विद्वेषियों के वध से जयलक्ष्मी को प्राप्त किया। पहेरामणी के रूप में उनकी सर्व विभूति को ग्रहण कर लिया। उत्साहपूर्वक अपने ज्येष्ठ बन्धु को वापस ले आया, जिससे वह समस्त विघ्न से रहित भोग का भाजन बना।।३९।२४५।। उसी दृष्टान्त को बताकर अब दान्तिक को कहते हैं - कुणमाणो वि नियित्तिं परिच्चयंतो वि सयणधणभोगे । दितो वि दुस्सह उरं मिच्छदिट्ठी न सिज्जड़ उ ॥४०॥ (२४६) अन्य दर्शन में कही हुई विरति रूपी निवृत्ति को करते हुए, स्वजन-धन-भोगादि का त्याग करते हुए भी पंचाग्नि तप प्रमुख आदि द्वारा शरीर को काय क्लेश देते हुए भी मिथ्यादृष्टि सिद्ध नहीं होता। दर्शन रहित होने से अन्धे कुमार की तरह वह कार्य-सिद्धि में अक्षम होता है। इसी अर्थ में भाव से दर्शन रहित तामलि का दृष्टान्त आता है। उसकी कथा इस प्रकार है - जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में बंग नामक देश है। रमणीय क्रीड़ाओं के केलिभूत, सुख रूपी वृक्षों से युक्त महाउद्यान था। उस पृथ्वीमण्डल की शोभारूप तामलिप्ति नामक नगर था। विभिन्न गज आदि रूपों से श्रीनटी की तरह वह नगर खिलता था। उस नगर में तामलि नामक विख्यात गृहपति रहता था। उसके लक्ष्मी रूपी लताओं से युक्त घर रूपी महाउद्यान था। उसकी कीर्ति गंगा हिमालय से बहती थी। वह अपने स्वजनों के हृदय-कमल को उल्लसित करने वाले भास्कर के समान था। काम-युक्त कामिनियों के नेत्रों के लिए वह सुधाकर में रहे हुए चन्द्रमा के समान था। सम्मानयुक्त दान द्वारा उसने कल्पवृक्ष को भी जीत लिया था। संपूर्ण नगर में, नागरिकों में वह अपनी कुटुम्ब-वृद्धि को ही दर्शाता था। एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में वह जागृत हुआ। संपूर्ण कामों की पूर्ण तृप्ति के साथ उसके मन में इस प्रकार की चिन्ता जाग्रत हुई कि जब तक यह लक्ष्मी है, वह अन्धे को भी धनेश्वर बना देती है। यह लक्ष्मी वंश क्रम से आयी हुई तथा न्याय-धर्म से अर्जित की गयी है। पुत्र-पौत्र आदि से युक्त मेरा कुटुम्ब भी विनीत है। महाजन कुल तथा राजकुल में मेरी अद्भुत मान्यता है। यह सभी मेरे द्वारा आचरित पूर्व भव के धर्म-कर्म का ही फल है। कहा भी है - शुभं वाऽप्यशुभं वापि नाऽकृतं प्राप्यते यतः । शुभ अथवा अशुभ जो भी प्राप्त होता है, वह हमारे द्वारा अकृत प्राप्त नहीं होता। तो फिर रोज-रोज बैठे-बैठे मैं क्यों भोग रहा हूँ? इस प्रकार विचार करते-करते रात्रि बीत गयी। प्रभात का पदार्पण हुआ। तब उसने समस्त बांधवों, स्वजनों एवं नागरिक जनों को बुलवाया। विवाह आदि में दिये जाने से भी ज्यादा वस्त्र, भोजन, ताम्बूल आदि के द्वारा उन सभी का सम्मान करके, बातचीत करके उन्हें अपना आशय बताया कि मैं भव-निर्वेद के कारण त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ व काम से उद्विग्न हो गया हूँ। अतः अब में चतुर्थवर्ग मोक्ष के साधन रूप तप को ग्रहण करूँगा। इस प्रकार उनकी आज्ञा लेकर उनके समक्ष अपने पुत्रों को अपनी आत्मा की धुरी की तरह सारा भार आरोपित कर दिया। लोगों के दीनानाथ की तरह महादान देते हुए, औचित्य पूर्ण व्यवहार को निभाते हुए स्वजनों से तथा स्नेह से भरे हुए सभी नागरिकों से युक्त पुर से बाहर निकलकर मोह-पाश को छिन्न 285

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