Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 331
________________ अजीव तत्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् आहारक में बारह तथा अनाहारक में मनःपर्याय ज्ञान व चक्षु दर्शन रहित दस उपयोग होते हैं। जीवस्थान, गुणस्थान, योग तथा उपयोग बताये गये हैं। अतः विस्तारपूर्वक इस प्रकार गति आदि जीवतत्त्व कहा गया ।। २९ ।। २३५ ।। अब अजीव तत्त्व का वर्णन किया जाता है - धम्मा धम्मागासा तियतियभेया तहेव अद्धा य । खंधा देसपएसा परमाणु अजीव चउदसहा ॥३०॥ (२३६) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय के स्कंध, देश, प्रदेश तीन-तीन भेद ये नौ तथा दसवाँ काल एवं स्कन्ध, देश, प्रदेश तथा परमाणु ये चार पुद्गल के भेद मिलाकर अजीव के चौदह भेद होते हैं। गति परिणति से जो जीव पुद्गलों को धारण करने के स्वभाव वाला है वह धर्म है। उसके प्रदेश रूपी जिसकी काय है, वह प्रदेश- संघातरूप अस्तिकाय होता है । इस अस्तिकाय का धर्म ही धर्मास्तिकाय कहलाता है। इसके विपरीत अर्थात् ठहरने में सहायक अधर्मास्तिकाय होता है । इन तीनों के तीन-तीन भेद होते हैं। जैसेधर्मास्तिकाय स्कंध, इसका देश, इसका प्रदेश। इसी प्रकार अन्य दोनों का भी जानना चाहिए। ये मिलाकर नौ भेद हुए। दसवाँ काल एक ही प्रकार का होता है क्योंकि यह वर्तमानिक लक्षण वाला होता है । अतीत के विनाश एवं अनागत के अनुत्पन्न होने से असत्त्व रूप है। पुद्गलों का समूह - विशेष स्कन्ध होता है। देश स्कन्ध का भाग कहलाता है। प्रदेश भी स्कन्ध का ही सूक्ष्मतम भाग होता है। परमाणु निरंश होता है स्कन्धरूप से परिणत नहीं होता। इस प्रकार ये अजीव के चौदह भेद हैं ।। ३० ।। २३६ ॥ मूल भेदों द्वारा ये धम्माधम्मापुग्गलनह कालो पंच हुंति अजीवा । पुनः कितने होते हैं? तो कहते हैं - || अजीव तत्त्व || चलणसहावो धम्मो थिरसंठाणो य होइ अधम्मो ॥३१॥ (२३७) धर्म-अधर्म- पुद्गल - आकाश व काल ये पाँच अजीव होते हैं। चलन स्वभाव वाला धर्म तथा स्थिर संस्थान वाला अधर्म होता है। पुद्गल के बिना ये चारों ही अमूर्त और निष्क्रिय है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एक जीव- प्रदेश प्रमित असंख्य प्रदेशी लोक व्यापी है। आकाश अनन्त प्रदेशी लोकालोक - व्यापी है। पुद्गल अनन्त हैं एवं लोकवर्त्ती है। काल तो तत्त्वतः वर्त्तमान रूप ही है। सूर्य गति कृत तो व्यावहारिक है और वह समय, आवलिका, मुहूर्त आदि रूप मनुष्य क्षेत्र में ही है। चलन स्वभाव वाला गति लक्षण रूप धर्मवाला धर्मास्तिकाय है। स्थिर संस्थान अर्थात् पदार्थों का अवस्थान जिस कारण से होता है, वह अधर्मास्तिकाय है । स्थिती इसका लक्षण है। ये दोनों ही मनुष्य के प्रयत्न अथवा बिना प्रयत्न के पदार्थों की लोक में गति व स्थिती के हेतु है । अलोक में तो इन दोनों का अभाव होने से इन्द्र देव के प्रयत्न से भी गति व स्थिती नहीं होती। अतः सामान्य रूप से इनके अस्तित्व की स्थापना की गयी है। विशेष रूप से तो सिद्धसेन गणि द्वारा रचित 'गन्धहस्ती' टीका से जान लेना चाहिए ।। ३१ ।। २३७॥ तथा - अवगाहो आगासो पुग्गल - जीवाण पुग्गला चउहा । खंधा - देस - पएसा परमाणु चेव नायव्या ॥३२॥ (२३८) जीव और पुद्गल को अवकाश देने वाला, अवगाहित करने वाला आकाश है । शीत-आतप-वर्षा आदि का 282

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