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गुणस्थान
सम्यक्त्व प्रकरणम् दस हैं।
मनोयोग में पर्याप्त संज्ञी एक स्थान, वचन योग में पर्याप्ता बेइन्द्रिय-तेइन्द्रिय-चउरिन्द्रिय-असंज्ञी व संज्ञी पाँच स्थान तथा काय योग में सभी चौदह हैं।
पुरुष-स्त्री वेद में संज्ञीद्वय, नपुंसक वेद में सभी स्थान हैं। कषायों में सभी जीव स्थान हैं।
मति-श्रुत-अवधि तथा विभंग में संज्ञी द्वय, मति-श्रुत अज्ञान में सभी चौदह, मनःपर्यव ज्ञान व केवल ज्ञान में पर्याप्त संज्ञी एक स्थान है।
देशसंयत-सामायिक-छेदोपस्थापनीय-परिहार विशुद्धि-सूक्ष्मसम्पराय व यथाख्यात में पर्याप्त संज्ञी तथा असंयम में सभी १४ जीव स्थान है।
चक्षु-दर्शन में पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी तथा संज्ञी रूप तीन, अचक्षु दर्शन में सभी चौदह, अवधि दर्शन में संज्ञी द्वय तथा केवल दर्शन में पर्याप्त संज्ञी एक होता है।
प्रथम की तीन लेश्या में सभी चौदह, तेजोलेश्या में संज्ञी-द्वय, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय ये तीन, तेजो लेशी में भवनपति आदि के बादर पृथ्वी, पानी तथा प्रत्येक वनस्पति में उत्पन्न होने से भवी-अभवी में सभी चौदह है।
क्षायिक-क्षायोपशमिक में संज्ञी द्वय, औपशमिक सम्यक्त्व में पर्याप्त संज्ञी ही होता है, क्योंकि अपर्याप्ता में औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता। उसके प्रति योग्य शद्धि भाव होने से। कहा भी है -
अणबंधोदयमाउगबंधं कालं पि सासणो कुणइ । उवसम सम्मदिट्ठी चउण्हमिकं पि नो कुणइ ॥
सास्वादन समकिती अणबंध, उदय, आयुष्य, बंधकाल आदि करता है। उपशम सम्यग्दृष्टि चारों में से एक भी नहीं करता। ___ इस वचन से अपर्याप्त के परभविक औपशमिक सम्यक्त्व भी असंभव होता है। उपशान्त मोह के सर्वथा उत्पत्ति में भी अभाव होता है।
पढमसमए चेव संमत्तपंजं उदयावलियाए छोढण सम्मत्तपग्गले वएइत्ति ।
प्रथम समय में सम्यक्त्व पुंज को उदयावलिका में छोड़कर सम्यक्त्व पुद्गल में जाता है। इस वचन से अपर्याप्त के औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होगा।
क्षायिक, क्षायोपशमिक व औपशामिक सम्यक्त्व में संज्ञी-द्वय, मिश्र में पर्याप्त संज्ञी, सास्वादन में बादर एकेन्द्रिय-बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-असंज्ञी का अपर्याप्त तथा संजीद्वय ये सात तथा मिथ्यात्व में सभी चौदह होते हैं।
संज्ञी में संज्ञी द्वय तथा असंज्ञी में संज्ञी द्वय को छोड़कर शेष बारह होते हैं। आहारक में सभी चौदह तथा अनाहारक में सात के अपर्याप्ता तथा संज्ञी का पर्याप्ता ये आठ होते हैं।
|| गुणस्थान ॥ देव तथा नरक गति में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचगति में पाँच तथा मनुष्य गति में चौदह गुणस्थान होते हैं।
एकेन्द्रिय-बेइन्द्रिय-तेइन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय में आदि के दो तथा पंचेन्द्रिय में सभी चौदह गुणस्थान होते हैं। पृथ्वी-पानी-वनस्पति में दो, तेउ-वायु में एक तथा त्रसकाय में सभी चौदह गुणस्थान होते हैं।
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