Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 325
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् मिच्छदिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छदिट्ठी य । अविरयसम्मद्दिट्ठि विरयाविरए पमत्ते य ॥२७॥ (२३३) तत्तो य अप्पमत्ते नियट्टि अनियट्टि बायरे सुहुमे । उवसंतखीणमोहे होड़ सजोगी अजोगी य ॥२८॥ (२३४) मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, मिश्र दृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, विरताविरति, प्रमत्त, अप्रमत्त, निवृत्ति बादर, अनिवृतिबादर, सूक्ष्मसंपराय, उपशांत मोह, क्षीण मोह, सयोगी व अयोगी ये चौदह गुणस्थान होते हैं। १. मिथ्या अर्थात् अतथ्य रूप अर्हत् धर्म को मानने की दृष्टि जिसकी है, वह मिथ्यादृष्टि है। तो फिर उसे गुणस्थान क्यों कहा जाता है? किसी भी वचन आदि का जिनमत अनुसारी होने से गुणस्थानता कही गयी है या फिर सूत्रोक्त अक्षर मात्र भी अरुचि होने से मिथ्यादृष्टि एवं शेष में रुचि होने से गुणस्थानता कही गयी है। एकेन्द्रिय आदि में पहला गुणस्थान चैतन्य मात्र गुण की अपेक्षा से कहा गया है। विशुद्धि रूप गुणस्थान २. लाभ को प्राप्त कराने वाला आसादन है। यह अनन्तानुबंधी कषाय का वेदन करता है। आसादन सहित होने से सासादन कहा जाता है, वह आसादन इस प्रकार है - किसी गहरे भवोदधि में रहे हुए प्राणी को अनाभोग निवृत्त द्वारा यथाप्रवृत्तिकरण संज्ञा द्वारा शुभ अध्यवसाय से समस्तकर्मों की अंतः कोटाकोटि सागरोपम स्थिती संपादित होती है। वह अपूर्वकरण नामक शुभ अध्यवसाय द्वारा ग्रन्थिभेद करके अनिवृत्तिकरण नामक शुभ अध्यवसाय से मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की स्थिती के अन्तर्मुहुर्त्त प्रमाण अन्तर करण को करता है। तब अन्तर्मुहूर्त से नीची स्थिती का क्षय करके अन्तकरण के प्रथम समय में ही औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । वहाँ उस आन्तर मौहूर्तिक उपशम काल में जघन्य से एक समय शेष रहने पर तथा उत्कृष्ट छः आवलिका शेष रहने पर कुछ अनंतानुबन्धी के उदय से व उपशम श्रेणि से गिरते हुए के सास्वादन सम्यग् दृष्टि होती है। उसके बाद अवश्य ही उपरितन मिथ्यात्व की स्थिती का उदय होने से वह नियमपूर्वक मिथ्या दृष्टि होता है। ३. सम्यग् - मिथ्या से युक्त दृष्टि मिश्र कहलाती है। वह अन्तकरण काल में प्राप्त औपशमिक सम्यक्त्व रूपी औषधि विशेष के समान प्राप्त करके मदन कोद्रव में रहे हुए उपरितन मिथ्यात्व मोहनीय के तीन पुंज करता है, जो अशुद्ध, अर्द्ध विशुद्ध तथा शुद्ध रूप से होते हैं। इसमें अर्द्ध विशुद्ध रूप पुंज के वेदनकाल में अन्तर्मुहूर्त्त तक मिश्रदृष्टि होती है। उससे आगे अवश्य ही सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व प्राप्त होता है। ४. अविरत - सम्यग्दृष्टि अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से अणुव्रत आदि को ग्रहण नहीं करते हुए केवल सम्यक्त्वी होता है। प्राणिवध आदि में देश से निवृत्त तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सभी में विरताविरत - स्थूल अविरत होता है। ६. प्रमत्त अर्थात् प्रमत्त संयती । कषायदुष्प्रणिधान के कारण धर्म में अनादर आदि के प्रभाववाला साधु होता है। ५. ७. इसके विपरीत अप्रमत्त संयती होता है। ८. नियट्टी अर्थात् निवृत्ति बादर गुणस्थान। यह आठवाँ गुणस्थान होता है। इसके प्रथम समय में ही असंख्य लोकाकाश प्रदेशों के तुल्य जघन्य आदि तथा उत्कृष्ट अन्त तक अध्यवसाय स्थान होते हैं। उत्तरोत्तर समय में ये अधिक-अधिक होते हैं। इनमें जघन्य से उत्कृष्ट तथा पूर्व में कहे हुए उत्कृष्ट से बाद वाले जघन्य अनन्तगुण विशुद्ध होते हैं। अतः इस गुणस्थान को एक साथ स्वीकार करने वालें प्राणियों के अन्योन्य 276

Loading...

Page Navigation
1 ... 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382