________________
क्रम-प्राप्त योग द्वार
सम्यक्त्व प्रकरणम् ये सभी सामान्य से सचित्त-अचित्त-मिश्र, संवृत्त-विवृत्त-मिश्र, शीत-ऊष्ण-मिश्र - इस प्रकार के भेद से नौ प्रकार की योनि भी होती है।।२३-२४॥२२९-२३०।।
अब क्रम-प्राप्त योग द्वार का कथन करते है - सच्चं मोसं मिसं असच्वंमोसं मणोवई अट्ठ। काओ उराल-विक्किय-आहारगमीस-कम्मइगो ॥२५॥ (२३१)
जैसे अग्नि के संपर्क से ईंट आदि में वक्रता आती है, वैसे ही मन-वचन-काया के संबंध से आत्मा की शक्ति विशेष योग कहलाती है। यह योग वृद्ध की लकड़ी के सहारे की तरह जीव का उपग्राहक होता है। वे योग सत्य-मृषा-मिश्र-असत्यामृषा-मन के चार योग, सत्य-मृषा-मिश्र-असत्यामृषा वचन औदारिक, वैक्रिय, आहारक ये तीन योग तथा इन तीनों के मिश्र तीन योग एवं कार्मण काय योग एक इस प्रकार पन्द्रह योग हैं।
__उराल अर्थात् उदार यानि शेष शरीरों से प्रधान जो है, वह औदारिक शरीर है। उसका योग भी उदार अर्थात् प्रधान है। यहाँ तीर्थंकरों व गणधरों के शरीर की अपेक्षा से इस शरीर की प्रधानता कही गयी है। उससे अन्य अनुत्तर शरीर अनन्त गुण हीन होते हैं। विविध या विशिष्ट प्रकार की क्रिया जिस शरीर में होती है, वह वैक्रिय शरीर है। उसका योग वैक्रिय योग कहलाता है। तीर्थंकर आदि के पास से सूक्ष्म पदार्थ जिस शरीर द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, वह आहारक शरीर है। उसका योग आहारक योग है। मिश्र तीन प्रकार का है - औदारिक शरीरी का उत्पत्ति समय में कार्मण के साथ, वैक्रिय-आहारक लब्धि करने के समय उन दोनों से मिश्र औदारिक मिश्र काययोग होता है। देव आदि के उत्पत्ति के समय में कृत वैक्रिय का कार्मण के साथ, पुनः औदारिक मिश्रण काल में औदारिक के साथ वैक्रिय मिश्र काय योग होता है। आहारक मिश्र तो साधित आहारक प्रयोजन वाले के पुनः
औदारिक-प्रवेश में औदारिक के साथ आहारक मिश्र काय योग होता है। कार्मण योग विग्रह गति में होता है। कार्मण काय योग केवलीसमुद्घात के तीसरे, चौथे, पाँचवें समय में होता है। तैजस सदैव कार्मण का सहचारी होने से उसका व्यापार पृथक् नहीं होता। अतः उसके काय योग का कथन नहीं किया गया है। सभी मिलकर योग पन्द्रह होते हैं।।२५।।२३१॥
इस प्रकार प्राणादि द्वार गाथा की व्याख्या की गयी। अब जीव के लक्षण भूत उपयोगों को कहते हैं - नाणं पंचवियप्पं अन्नाणतिगं च सव्यसागारं ।
चउदंसणमणागारं उयओगा बारस हवंति ॥२६॥ (२३२) ज्ञान के पाँच विकल्प अर्थात् पाँच भेद हैं। १. इन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय से होनेवाला मतिज्ञान है। २. द्रव्यभाव श्रुत से उत्थित श्रुतज्ञान है। ३. रूपी-द्रव्य का विषय-ज्ञान अवधिज्ञान है। ४. मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए संज्ञी जीवों के मन की पर्यायों का ग्राहक मनःपर्यय ज्ञान है। ५. सर्वप्रकाशक, केवल, असहाय ज्ञान केवलज्ञान है।
__ मिथ्यादृष्टियों के विपरीत अर्थ का ग्राहक होने से प्रथम के तीन ज्ञान उनके अज्ञान रूप ही होते हैं। सभी ज्ञान और अज्ञान आकारवान् होते हैं अर्थात् व्यक्ति-ग्रहण-परिणाम रूप विशिष्टता से युक्त होतें हैं। अतः साकार अर्थात् विशेष के ग्राहक होते है। चार दर्शनों का समाहार चक्षु दर्शन है। शेष इन्द्रिय तथा मन से ग्रहण करना अचक्षु दर्शन है। अवधि से होनेवाला अवधि दर्शन तथा केवल से होने वाला केवल-दर्शन है।
__ जिसका आकार नहीं होता। अर्थात् पूर्वोक्त, रूप जिसका नहीं होता, वह अनाकार है। सामान्य का ही ग्रहण इसमें होता है। मनःपर्याय ज्ञान तो विशेषाकार का ग्राहक होता है, अतः उसका दर्शन-भेद नहीं होता।
इस प्रकार पदार्थ के ग्रहण में प्रयुक्त होने वाला जीव का उपयोग बारह प्रकार का होता है।।२६॥२३२।। अब जीव के उत्तरोत्तर विशुद्धि रूप गुणस्थानों को कहते हैं -
275