Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 323
________________ योनि द्वार सम्यक्त्व प्रकरणम् सामायिक चारित्र दो प्रकार का है - इत्वर तथा यावत्कथिक । यहाँ इत्वर चारित्र तो भरत - ऐरवत क्षेत्र में प्रथम व अंतिम तीर्थंकर की तीर्थउपस्थापना में होता है। उस समय छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होता। अतः उसका कथन नहीं किया गया है । यावत् कथित चारित्र मध्यम बावीस तीर्थंकरों के तीर्थ में और महाविदेह में उपस्थापना के भाव में उसका कथन होने से जीवन भर संभवित होता है। सातिचार यति के छेद अथवा निरतिचार यति या शैक्षक के तीर्थान्तर सम्बन्धी अथवा तीर्थान्तर प्रतिपद्यमान के पूर्व पर्याय का छेद रूप होने से उसमें उपस्थापना युक्त होने से महाव्रतों के आरोपण रूप जो चारित्र होता है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है। परिहारविशुद्धि दो प्रकार का है - निर्विशमानक निर्विष्टकायिक। इसमें पहला आसेवमानों को तथा दूसरा आसेवित चारित्रियों को होता है। नौ साधु का गण इसे अंगीकार करता है । चार परिहारक तथा चार वैयावृत्यकारी होते हैं और एक-एक अनुपारिहारिक कल्पस्थित वाचनाचार्य होते हैं। उनका यह तप होता है, जैसे- पारिहारिक को तप जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट तीन प्रकार का होता है जो शीत, ऊष्ण तथा वर्षाकाल में तीर्थंकरों द्वारा बताया गया है। जघन्य तप ग्रीष्म काल में होता है । जघन्य उपवास, मध्यम बेला तथा उत्कृष्ट तेले का तप करते हैं। शिशिर ऋतु में जघन्य बेला, मध्यम तेला व उत्कृष्ट चार उपवास, वर्षाऋतु में जघन्य से अट्टम, मध्यम में चार उपवास और उत्कृष्ट से पंचोला होता है। पारणे के दिन आयंबिल करते हैं। पाँच में से दो अभिग्रह भिक्षुग्रहण करते हैं। कल्पस्थित तो यही आयम्बिल प्रतिदिन करते हैं। इस प्रकार पारिहारिक छः माह तक इस तप को करते हैं। फिर छः महीने तक वैयावृत्यकारी पारिहारिक बन जाते हैं एवं पारिहारिक वैयावृत्यकारी बनकर इस तप को करते हैं। कल्पस्थित भी पुनः छ मास तक यह तप करता है। शेष आठों उसकी सेवा करते हैं। इस प्रकार अट्ठारह महीनों में यह कल्प पूरा होता है। संक्षेप में यह बताया गया है। विस्तारपूर्वक तो सूत्र से जानना चाहिए । फिर वे नौ ही जने कल्प में लौट आते हैं, जिनकल्प को स्वीकार करते हैं या गच्छ में चले जाते हैं। प्रतिपद्यमान तो पुनः तीर्थंकर के पास प्रव्रजित होते हैं। यह कल्प तीर्थंकरों की साक्षी में ही होता है, अन्य के पास नहीं। इसी कारण से परिहारविशुद्ध चारित्र भी जिनेश्वर के समय में ही कहा गया है। उपशम श्रेणि व क्षपक श्रेणी में लोभ के अनुवेदन के समय में सूक्ष्म संपराय अर्थात् लोभ का थोड़ा सा भी अंश रूप कषाय होने से उसे सूक्ष्मसंपराय चारित्र कहा जाता है। यथाख्यात चारित्र तो अर्हत् द्वारा कहे गये स्वरूप को अनतिक्रमण करते हुए उसके समान छभस्थ के उपशान्त मोह तथा क्षीण मोह नामक गुणस्थानों में रहे हुए साधु को तथा सयोगी - अयोगी केवली रूपी द्वयगुणस्थानवर्त्ती को होता है । । २१ - २२ ।।२२७-२२८ ।। अब योनिद्वार का वर्णन करते हैं - पुढवीदगअगणिमारूय इक्केक्के सत्तजोणिलक्खाओ । वणपत्तेय अनंता दस चउद्दस जोणिलक्खाओ ॥२३॥ (२२९) विगलिदिएस दो दो चउरोचउरो य नारयसुरेसु । तिरिए हुंति चउरो चउदसलक्खा उ मणुएसु ॥२४॥ (२३०) पृथ्वी, अप्, तेउ तथा वायु - इनकी प्रत्येक की योनि सात-सात लाख की है । प्रत्येक वनस्पति की दस लाख की है। साधारण वनस्पति काय की चौदह लाख की है । विकलेन्द्रियों की दो-दो लाख की; नारक व देवों की चार-चार लाख की, तिर्यंच पंचेन्द्रिय की चार लाख की तथा मनुष्य की चौदह लाख की है । सभी मिलाकर चौरासी लाख जीवयोनि होती है। यहाँ समान वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श परिणाम वाले बहुत से भी व्यक्तियों की एक ही योनि होती है। अन्यथा तो प्रति व्यक्ति के योनि भेद से योनि की अधिकता प्राप्त होगी । 274

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