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सम्यक्त्व प्रकरणम्
जा संजमया जीवेसु ताव मूला य उत्तरगुणा य ।
इत्तरियच्छेयसंजम नियंठ बकुसाऽऽयपडिसेवी ॥६०॥ (१७४)
जब तक जीवों में संयम है अर्थात् शेष गुणों का अभाव होने पर भी जब तक छः काय के जीवों की रक्षा मात्र रूप पालना उपलब्ध है, तब तक मूल रूप से मूल- गुण और उत्तर- गुण की पालना भी हैं।
जब तक मूलगुण- उत्तरगुण है, तब तक इत्वरिक तथा छेद संयम अर्थात् सामायिक व छेदोपस्थापनीय चारित्र की पालना है और जब तक ये दोनों चारित्र है, तब तक बकुश तथा आय - प्रतिसेवी कुशील की पालना भी हैं। यहाँ आय का मतलब यह है कि ज्ञानादि लाभ के प्रतिकूल-सेवी होतें हैं, अर्थात् प्रतिकूल चेष्टा करते हैं, ज्ञान आदि के द्वारा उपजीवक होते हैं, वे आय - प्रतिसेवना कुशील कहलाते है ।। ६० ।। १७४ ।।
यही व्यवस्था सर्व तीर्थों में है, इसे बताते हुए कहते हैं -
चण्डरुद्राचार्य की कथा
सव्यजिणाणां निच्चं बकुसकुसीलेहिं वट्टए तित्थं ।
नवरं कसायकुसीला अपमत्तजई वि सत्तेण ॥ ६१॥ (१७५)
सभी जिनेश्वरों के अर्थात् भरत - ऐरवत तथा महाविदेह क्षेत्रवर्ती समस्त तीर्थंकरों का तीर्थ नित्य ही बकुश तथा कुशील से प्रवर्तित होता है।
क्योंकि पुलाक आदि तो कदाचित् ही होने से अल्प होते हैं। केवल इतनी विशेषता है कि कषाय की सत्ता रूप से कषाय कुशील सातवें गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त यति को भी कहा जाता है। अतः इस प्रकार कषाय कुशील भी जब तक तीर्थ है, तब तक रहता ही है ।। ६१ ।। १७५ ।।
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क्योंकि बकुश कुशील से तीर्थ प्रवृत्ति होती है । अतः कहते हैं गुरुगुणरहिओ य इहओ दट्ठव्यो मूलगुणविउत्तो जो
न तु गुणमित्तविहीणुत्ति चंडरुद्दो उदाहरणं ॥६२॥ (१७६)
यहाँ गुरु के विचार में गुरु-गुण से रहित उसे ही जानना चाहिए, जो मूलगुण से रहित है। उपलक्षण से तो बार-बार उत्तर गुणका विराधक होता है वह मूल- गुण का विराधक हो जाता है। कहा भी है
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जो चयइ उत्तरगुणे मूलगुणे वि अचिरेण सो चयइ । (उप. माला ११७) अर्थात् जो उत्तरगुण से च्युत होता है, वह शीघ्र ही मूल गुण से भी च्युत हो जाता है।
यहाँ पुनः गुण मात्र से रहित नहीं जानना चाहिए, क्योंकि प्रिय वचन, विशिष्ट उपशम आदि गुण से रहित चण्डरुद्राचार्य का उदाहरण यहाँ दिया जाता है, जो प्रकृति से क्रोधी होते हुए भी बहुत से संविग्न, गीतार्थ शिष्यों को मुक्ति दिलाने के कारण बहुत ही सम्मान के कारण बनें। उनकी कथा इस प्रकार है -
॥ चण्डरुद्राचार्य ॥
जिस प्रकार प्रवाल रत्न में रंग स्फुरायमान होता है उसी प्रकार देशो में स्फुरित कर्बट से छोटा और पत्तन उत्तम अवन्ती नामक देश था । जैसे - गीतों में ग्रामराग शुभ होता है उसी प्रकार इस राज्य में भी शुभ गाँव थे। कुत्सित राजाओं में तीक्ष्ण कर को धारण करने के समान इस देश में भी स्वर्णआदि की प्रचुर खानें थीं। पुण्य कर्म की सत्ता होने से दान के अभ्यास से योगप्रिय सुसाधु जिनको प्रिय थे। भोग के अभ्यास से जो प्रियाएँ वल्लभ से अविरहिनि थी, ऐसे मनुष्यों से युक्त वह देश था । अर्थात् दान व भोग के अभ्यास से उनके पावन कर्म थे ।
एक बार उस नगरी में बहुत से शिष्य परिवार से युक्त आचार्य चण्डरूद्र ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वहाँ पधारें। निरवद्य, निराबाध धर्म ध्यान की वृद्धि करते हुए वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी बाहर के सूनसान उद्यान में पधारें। कम
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