Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 305
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् बकुश-कुशील चारित्री निग्गंथसिणायाणं पुलायसहियाण तिण्ह वुच्छेओ । बकुसकुशीला दुन्नि वि जा तित्थं ताय होहिंति ॥५०॥ (१६४) पुलाक, निर्ग्रन्थ व स्नातक - इन तीनों का विच्छेद हो चुका है। बकुश तथा कुशील-ये दोनों चारित्र, जब तक तीर्थ रहता है, तब तक रहते हैं।।१०।१६४।। अब तीर्थ-भावी उन दोनों के प्रति क्या करना चाहिए? तो कहते हैं - ता तेसिं असढाणं जहसत्ति जहागमं जयंताणं । कालोचियजयणाए बहुमाणो होइ कायव्यो ॥५१॥ (१६५) इसलिए इन दोनों चारित्र धारियों के साथ यथाशक्ति, यथागम उत्कृष्ट रूप से बरतना चाहिए। कालोचित यतना द्वारा बहुमान-पूजा आदि करनी चाहिए।।५१।।१६५।। अब पूजा को परिभाषित करते हैं - बहुमाणो वंदणयं निवेयणा पालणा य जत्तेण । उवगरणदाणमेव य गुरुपूया होइ विन्नेया ॥५२॥ (१६६) बहुमान अर्थात् मानसिक प्रीति द्वारा, वंदना-बारह आवर्तन द्वारा, निवेदना-द्रव्य से धन धान्य आदि सर्वस्व समर्पण करना तथा भाव से सर्वात्मना मन का समर्पण करना, पालना-उनके उपदेश की आराधना करना। किस प्रकार? तो यत्नपूर्वक अर्थात् आदरपूर्वक जयणापूर्वक करनी चाहिए। उपकरण का दान अर्थात् वस्त्र आदि का दान करना। इसके साथ ही अभ्युत्थान, अभिगमन, अनुगमन आदि भी गुरुपूजा होती है-यह जानना चाहिए।।५२।।१६६।। निर्ग्रन्थ व स्नातक की अपेक्षा से बकुश व कुशील की गुणहीनता होने पर भी इस प्रकार की प्रतिपत्ति कैसे कही गयी है? तो बताते हैं - पलए महागुणाणं हवंति सेवारिहा लहुगुणा वि । अत्थमिए दिणनाहे अहिलसइ जणो पइयंपि ॥५३॥ (१६७) महागुणों के अभाव में लघुगुण भी सेवा के योग्य होते हैं क्योंकि सूर्य के अस्त हो जाने पर लोग दीपक को भी चाहते ही हैं।॥५३॥१६७।। आगम में भी यही व्यवस्था है। जैसे - समत्तनाणचरणाणुवाइमाणाणुगं च जं जत्थ । जिणपन्नत्तं भत्तीइ पूयए तं तहाभावं ॥५४॥ (१६८) सम्यक्त्व ज्ञान व चारित्र का आनुपातिक साक्षात् आगम में नहीं कहा हुआ होने पर भी जिनोक्त-अनुसारी जो भाव-गुण विशेष पुरुष में देखें तो शेषगुण का अभाव होने पर भी उसे जिन प्रज्ञप्त मानकर भक्ति सेबहुमान से उस प्रकार के भाव से अर्थात् गुण विशेष के अनुमान से उसकी पूजा करे, सत्कार करे।।५४॥१६८।। इसी अर्थ में आगे कहते हैं - केसि चि य आएसो दंसणनाणेहिं यट्टए तित्थं । युच्छिन्नं च चरित्तं वयमाणे होड़ पच्छित्तं ॥५५॥ (१६९) कोई व्यक्ति, जो आगम से अनभिज्ञ हैं, उनका आदेश अर्थात् मत है कि दर्शन व ज्ञान से तीर्थ प्रवर्तित होता है। चरित्र का तो व्यवच्छेद हो गया है। पर इस प्रकार बोलते हुए को प्रायश्चित्त आता है।।१५।।१६९।। इसी अर्थ को भावित करते हुए कहा है - 256

Loading...

Page Navigation
1 ... 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382