________________
पाँच प्रकार के चारित्री
युक्त वह गुरु निश्चय नरक की ओर ले जानेवाला होता है ।। ४६-४७ ।।१६०-१६१।। अब कैसे प्रथम-दर्शन में ही गुरु-गुण को जाने जाय - इसे बताते हैं - आलयविहारभासा चंकमणट्ठाणविणयकम्मेहिं ।
सव्यन्नुभासिएहिं जाणिज्जइ सुविहिउ साहू ॥ ४८॥ (१६२)
सुप्रमार्जित अर्थात् स्त्री, पशु, पंडकरहित उपाश्रय हो । मासकल्प आदि विहारी हो । भाषा के सूचन से यहाँ भाषा समिति कहा गया है। अतः भाषा समिति युक्त हो, ईर्यापथ युक्त गमन हो ।
एक का ग्रहण करने से संपूर्ण जाति का ग्रहण मानना चाहिए । अतः यहाँ ईर्या समिति के द्वारा संपूर्ण अष्टप्रवचन माता अर्थात् पाँच समिति व तीन गुप्ति का भी ग्रहण जानना चाहिए। स्थान अर्थात् निकलने व प्रवेश करने ऊर्ध्व स्थान वर्जित है । उपाश्रय आदि से बाहर निकलने अथवा प्रवेश करने में तो ऊर्ध्वस्थान संभव होता है, पर निष्क्रमण आदि अंश से भी यहाँ ऊर्ध्व स्थान का वर्जन जानना चाहिए । विनयकर्म अर्थात् परस्पर विनय के योग्य प्रतिपत्ति हो। इन सर्वज्ञ भाषित चिह्नो द्वारा सुविहित साधु जानना चाहिए || ४८ || १६२ ।।
अब इस प्रकार के साधु के चारित्र - मोहनीय कर्म के क्षयोपशम की विचित्रता के कारण भेदों के नाम बताते
हैं -
सम्यक्त्व प्रकरणम्
पुलायनामो पढमो चरित्ती बीओ बउस्सो तइओ कुसीलो ।
चउत्थओ होइ नियंठनामो सव्युत्तमो पंचओ सिणाओ ॥ ४९ ॥ ( १६३)
पहला पुलाक, दूसरा बकुश, तीसरा कुशील, चौथा निर्ग्रन्थ तथा पाँचवा स्नातक - चारित्र कहे गये हैं।
ये पाँच प्रकार के
पुलाक अर्थात् धान्य कण। इसके समान कुछ असार-संयम वाला होने से साधु भी पुलाक रूप होता है - यह पुलाक नामका प्रथम चारित्र है। वह दो प्रकार का है लब्धि पुलाक तथा प्रतिसेवना पुलाक । लब्धि पुलाक लब्धि-विशेष वाला होता है। जो कहा है
-
संघाइयाणकज्जे चुन्नेज्जा चक्कवट्टि सेन्नंपि तीए लद्धिइ जुओ लद्धिपुलाओ मुणेयव्वो ।
वाला।
(संबोध प्र. गुर्वधिकारे गा. २४३) संघातन करके चक्रवर्ती की सेना को भी चूर्णकर देनेवाली लब्धि से युक्त लब्धि पुलाक चारित्री जानना
चाहिए।
प्रतिसेवना पुलाक स्खलित आदि दोषों के द्वारा ज्ञान आदि असारता को करनेवाला होता है।
बकुरा चारित्री, बकुश संयम के योग से होता है। बकुरा अर्थात् चितकबरा । यह भी दो प्रकार का होता है। वस्त्र-पात्र-उपकरण की विभूषा करनेवाला तथा हाथ, पैर, नख, मुख आदि शरीर के अवयवों की विभूषा करने
तीसरा कुशील चारित्री भी दो प्रकार का होता है। ज्ञानादि से अपना निर्वाह करनेवाला प्रतिसेवना कुशील कहलाता है तथा कषायों से ज्ञान आदि की विराधना करनेवाला कषाय कुशील कहलाता है।
मोहनीय कर्म की ग्रन्थि से जो निकल गया है, वह निर्ग्रन्थ चारित्री कहलाता है । यह उपशान्त मोहनीय तथा क्षीण मोहनीय गुणस्थान में स्थित मुनि को होता है।
पाँचवा स्नातक चारित्री सर्वोत्तम होता है। नहाये हुए की तरह घाती कर्म रूपी मल को धो देने से केवलज्ञानी ही होते हैं। इन्हें ही स्नातक चारित्र होता है ।। ४९ ।। १६३ ।।
ये पाँचों चारित्र उत्तरोत्तर शुद्ध होते हैं। ये सभी अभी प्राप्त होते हैं अथवा कुछ प्राप्त होते हैं। इसी को बताते
255