Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 318
________________ जीव तत्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् मिलकर बीस भेद हुए। पंचेन्द्रिय के संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त, अपर्याप्त ये चार भेद हुए। ये २४ हुए। प्रत्येक वनस्पति, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय तथा चउरिन्द्रिय ये चार के पर्याप्ता-अपर्याप्ता आठ भेद हुए। कुल मिलाकर बत्तीस भेद हुए।।५।।२११।। यहाँ पर बेइन्द्रिय आदि संस्थान तो साक्षात् ही देखे जाते हैं, पर पृथ्वी आदि सूक्ष्म होने से दिखायी नहीं पड़ते। अतः उनके संस्थानों को कहा जाता है - मस्सूरए य थिबुए सूइ पडागा अणेगसंठाणा । पुढवीदगअगणिमारुययणस्सईणं च संठाणा ॥६॥ (२१२) पृथ्वीकाय का संस्थान मसूर की दाल के आकार का, अप्काय का जलबिन्दु के आकार का, तेउ काय का सूई की नोक के आकार का, वायुकाय का ध्वजापताका के आकार का तथा वनस्पतिकाय का संस्थान अनेक प्रकार का होता है। यहाँ संस्थान का मतलब शरीर के पुद्गलों की रचना-विशेष है।।६।२१२।। अब जीव में रही हुई इन्द्रियों के विषय को कहते हैं - संगुलजोयणलक्खो समहिओ नय बारसुक्कसो विसओ । चक्खुत्तियसोयाणं अंगुलअस्संखभागियरो ॥७॥ (२१३) चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय अपनी अंगुल से निष्पन्न एक लाख योजन से कुछ अधिक होता है। त्रिक अर्थात् स्पर्शना, रसना तथा घ्राण रूप इन्द्रिय का नव योजन एवं श्रोत्रेन्द्रिय का बारह योजन प्रमाण जानना चाहिए। यह प्रमाण सभी को अपने-अपने अंगुल के प्रमाण से जानना चाहिए। नव योजन की दूरी से आती हुई गन्ध तथा बारह योजन की दूरी से आती हुई ध्वनि इनका विषय होती है - यह अभिप्राय हुआ। जघन्य विषय सभी का अंगुल के असंख्यातवें भाग का जानना चाहिए। लेकिन चक्षुइन्द्रिय का जघन्य विषय यह नहीं होता। क्योंकि आँख अति संनिकट को नहीं देख पाती। भाष्य में भी कहा है - अवरमसंखिज्जंगुल भागा उ नयणवज्जाणं । संखिज्जयभागा उ नयणस्स मणस्स न विसयपमाणं ।। चक्षुइन्द्रिय को छोड़कर शेष इन्द्रिय का जघन्य विषय अंगुल के असंख्यातवें भाग का जानना चाहिए। चक्षुइन्द्रिय का जघन्य विषय अंगुल के संख्यातवें भाग तथा मन का विषय-प्रमाण नहीं है। जैसे कि - अपने अंगुल प्रमाण से लाख योजन का विषय भी अप्रकाशित द्रव्य की अपेक्षा से जानना चाहिए, जो कि चक्षु के विषय रूप से कहा गया है। प्रकाशित द्रव्य की अपेक्षा से तो २१ लाख योजन झाझेरा जानना चाहिए। कहा भी गया है - लक्खेहिं एगवीसाइरेगेहिं पुक्खरद्धंमि । उदये पिच्छंति नरा सूरं उक्कोसए दिवसे ॥१॥ (आवश्यकनियुक्ति ३४५) पुष्करार्द्ध द्वीप में उत्कृष्ट दिन में अर्थात् कर्क संक्रान्ति के दिन मनुष्य सूर्य से प्रकाशित द्रव्यों को इक्कीस लाख योजन से कुछ अधिक दूरी तक देखते हैं।।७।।२१३॥ अब जीव में रहे हुए प्राण आदि को कहने की इच्छा से द्वार गाथा कही जाती है - पाणा पज्जत्तीओ तणुमाणं आउयं च कायठिई । लेसासंजमजोणी एएसिं जाणियव्याई ॥८॥ (२१४) प्राण, पर्याप्ति, अवगाहना, आयु, स्थिती, लेश्या, संयम-योनि जानने योग्य हैं। 269

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