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पासत्थादि पांच का वर्णन
सम्यक्त्व प्रकरणम्
अतः दोनों ही भगवान् द्वारा कथित होने से निर्जरा के हेतु हैं।।८९।।२०३।। इस प्रकार अर्थ पर्यवसित हुआ। ज्याद क्या कहें। अतः पूर्व प्रस्तावना को कहते हैं -
मा आयन्नह मा य मन्नह गिरं कुतित्थियाणं तहा। सुत्तुतिन्नकुबोहकुग्गहगहग्घत्थाणमन्नाण वि नाणीणं चरणुज्जुयाण य तहा किच्वं करेहायरा, निस्सेसं जणांजणत्थमुचियं लिंगाय सेसाण यि ॥९०॥ (२०४)
कुतीर्थियों की वाणी को न सुने,न माने। सूत्र से उत्तीर्ण कुबोध रूपी कुग्रह से ग्रस्त अन्य तथा अपने यूथ में रहे हुए की वाणी को भी न सुने, न माने। ज्ञानियों के चरण में उद्यत जनों के संपूर्ण कृतिकर्म आदि कृत्य को आदर पूर्वक करे। जन-रंजन पासत्थादि के भक्तों को आवर्जित करने के लिए उचित आलाप, नमस्कार आदि पासत्थादि लिंगधारी को भी करे।।९०।।२०४।।
तथा -
गुरुकम्माण जियाणं असमंजसचिट्ठियाणि दह्णं । निंदपओसं मणयंपि सव्वहा संवियज्जेह ॥११॥ (२०५)
भारे कर्मी जीवों की अव्यवस्थित चेष्टाओं को देखकर थोड़ी भी निंदा अथवा मात्सर्य भाव का सर्वथा त्याग करें । अर्थात् पासत्यादि की भी निन्दादि न करें ।।११।।२०५।।
और भी - - दूसमकालसरुवं कम्मवसितं च सव्वजीवाणं ।
भावेह कुणह गुरुयायरं व गुणवंत पत्तेसु ॥१२॥ (२०६) सभी जीवों के दूषम कालिक तथा कर्मवासित स्वरूप को जानें। गुणवान् प्राप्त होने पर उसमें गुरु बुद्धि से आदर करे।।१२।।२०६।।
इस प्रकार पूज्य श्री चक्रेश्वर सूरि द्वारा प्रारम्भ उनके प्रशिष्य श्री तिलकाचार्य द्वारा निर्वाहित सम्यग् वृत्ति में चौथा साधु तत्त्व समाप्त हुआ।
||५|| तत्त्व-तत्त्व ।। अब मूल द्वार - गाथा के क्रम से प्राप्त पाँचवे तत्त्व की व्याख्या करते हैं। पूर्व तत्त्व के साथ इसका सम्बन्ध यह है कि पूर्व में गुरु का स्वरूप कहा गया। गुरु तत्त्व का वर्णन करते हैं। अतः तत्त्व नामक तत्त्व कहा जाता है। उसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है -
जीयाजीया पुनं पावासव-संयरो य निज्जरणा । बंधो मुक्खो य तहा नवतत्ता हुंति नायव्या ॥१॥ (२०७) १. चेतनावान् जीव है। २. अजीव चेतनारहित है। ३. शुभ प्रकृति रूप पुण्य है। ४. अशुभ प्रकृति पाप है। ५. जिसके द्वारा कर्म आते हैं, वे हिंसादि तत्त्व आश्रव हैं।
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