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सम्यक्त्व प्रकरणम्
बकुश-कुशील चारित्री से उत्पन्न पद की ध्वनि से चलने लगे। ऊँची नीची खडे खोचरे वाली भूमि पर गहरे धक्के खाने से वेदना से आर्त्त होकर गुरु महाक्रोध रूपी यान पर आरूढ़ हो गये। कठोर शब्दों में कहा - हा! हा! धिक्कार है। अधम! दुष्ट शिष्य! तुमने इस प्रकार सुमार्ग का प्रतिलेखन किया? इस प्रकार कहकर दण्ड से प्रहार करके उसके सिर को फोड़ डाला। पर्वत के निर्झर से बरसने वाले पानी की तरह उस नवदीक्षित शिष्य के सिर से शीघ्र ही रुधिर बहने लगा। पर उस शिष्य ने सम्यक् प्रकार से सहन किया। थोड़ा भी क्रोध नहीं किया। उसने सिर के फूटने को कर्म के गोले के फूटने की तरह माना। उसने विचार किया कि मैं अधन्य हूँ। साधुओं के मध्य सुख पूर्वक निवास करते हुए इन गुरु को मैंने व्रत लेकर अनर्थ में डाल दिया है। मैं इन गुरु को कैसे अस्खलित सुख-स्थान में ले जाऊँ। कैसे इनके शुद्ध चित्त की समाधि करूँ। इस प्रकार विचार करके चलते हुए शुद्ध अध्यवसाय रूपी प्रयत्न से निःश्रेणि की तरह मोक्ष की क्षपक श्रेणि को प्राप्त किया। लेश्या की विशुद्धि पर आरोहित होते हुए उन महामना ने शुक्ल ध्यान का आलम्बन लेकर केवल संपदा को प्राप्त किया। फिर उसने गुरु को सुमार्ग द्वारा गुरु को सम्यक् प्रकार से ले जाना प्रारम्भ कर दिया। इधर प्रभात होने पर गुरु ने रक्त से आई शैक्ष को देखा। तब विचार किया - अहो! इस नवदीक्षित मुनि की कितनी क्षमा। अहो! यह प्रशम निधि धन्य है। कृतार्थ है। पुण्यवान् है। यह चिरकाल से प्रव्रजित मैं उच्चआचार्यपद को पाकर भी क्रोध से जलते हुए मैंने कभी क्षमा का स्पर्श भी नहीं किया। अहो! निरपराधी शिष्य को मुझ दुरात्मा निष्ठुर द्वारा कैसे दण्ड से आहत किया गया। इस प्रकार संवेग रूपी वारि द्वारा क्रोध रूपी अग्नि को बुझाते हुए कर्म ईंधन को जलाते हुए ध्यान रूपी अग्नि को प्रदीप्त किया। क्षणभर में ही उन चण्डरूद्राचार्य ने अनन्त गुणों के पात्र होकर केवल ज्ञान को प्राप्त किया। भव्यों को प्रतिबोधित करके निर्वाण राज्य रूपी लक्ष्मी को प्राप्तकर नित्य शाश्वत सुख के अमृत सागर में निमग्न हो गये।।६२।।१७६ ।।
इस प्रकार चण्डरूद्राचार्य की कथा पूर्ण हुई। अब दुःषमादि अनुभाव को आश्रित करके उपदेश देते हैं - कालाइदोसओ जड़ वि कह वि दीसंति तारिसा न जई। सव्वत्थ तह यि नत्थि त्ति नेव कुज्जा अणासासं ॥६३॥ (१७७)
यदि कालादि दोष से यद्यपि वैसे निर्ग्रन्थ दिखायी नहीं देते हों, तो सर्वत्र वैसे साधु नहीं है - इस प्रकार अनास्था नहीं करनी चाहिए।।६३।१७७।।
क्योंकिकुग्गह कलंकरहिया जहसत्ति जहागमं च जयमाणा । जेण विसुद्धचरित्तत्ति युत्तमरिहंतसमयंमि ॥६४॥ (१७८)
असद् अभिनिवेश रूपी कलंक से रहित यथाशक्ति यथा आगम से प्रयत्न करते हैं, इस कारण से ऐसे विशुद्ध चारित्री होते भी हैं, यह अर्हत्-सिद्धान्त में कहा गया है। अर्थात् वैसे साधु-दिखायी पड़ते ही हैं।।६४॥१७८।।
जैसे कि -
अज्ज वि तिन्नपइन्ना गरुय भरुवहणपच्चला लोए । दीसंति महापुरिसा अक्खंडियसीलपटमारा ॥६५॥ (१७९)
आज भी तीर्ण-सामायिक प्रतिज्ञावाले कठिन संयम भार का उद्वहन करने में समर्थ, अखंड शील प्राग् भार से युक्त महापुरुष दिखायी देते ही हैं।।६५।।१७९।।
तथा -
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