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पासत्थादि पांच का वर्णन
करता है ॥३॥
अब इस वाक्य से अवसन्न को स्पष्ट किया जाता है
ओसन्नो वि यदुविहो सव्वे देसेय तत्थ सव्वंमि ।
उउबद्धपीठफलगो ठवियगभोई य नायव्वो ॥१॥ ( प्रव. सा. १०६, संबोध प्र. गुर्वधिकारे १२)
अवसन्न भी दो प्रकार का होता है - सर्व तथा देश अवसन्न। सर्व अवसन्न तो ऋतुबद्ध पीठ फलक का सेवक होता है। एकान्त रूप से बिछाये हुए संस्तारक का सेवी होता है और देश अवसन्न तो
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आवस्सगाईयाई न करे अहवा वि हीणमहियाइं ।
गुरुवयणं च विराहइ भणिओ एसो उ ओसन्नो || २ || ( प्रव सा. १०८ संबोध प्र. १४)
तिविहो होइ कुसीलो नाणे तंह दंसणे चरित्ते य ।
सम्यक्त्व प्रकरणम्
तत्थ य नाणकुसीलो अकाल सज्झायमाईहिं ॥ २ ॥ ( प्रव. सा. १०९ )
सम्मत्त कुशीलो पुण संकाई सेवगो मुणेयव्वो ।
कोउगभूईकम्माइ सेवगो होइ चरणंमि ॥३॥
आवश्यक आदि को न करे अथवा हीनाधिक करे, तो गुरुवचनों की विराधना करता है, वह अवसन्न कहा गया है ॥ १ ॥
कुशील तीन प्रकार का होता है - ज्ञान, दर्शन व चारित्र । ज्ञान कुशील अकाल में स्वाध्याय आदि करता है ॥२॥
दर्शन कुशील पुनः शंका आदि का सेवक होता है तथा चारित्र कुशील कौतुक, भूति कर्म आदि को सेवन करनेवाला होता है || ३॥
सौभाग्य आदि के लिए स्त्रियों आदि का तीन राह चौराहे पर स्नान आदि करना कौतुक है। ज्वर आदि को हटाने के लिए अभिमन्त्रित रक्षा पोटली आदि देना भूतिकर्म है। आदि शब्द से निमित्त आदि जानना चाहिए । पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहिं गारवेहिं पडिबद्धो ।
इत्थिगिहिसंकिलिट्टो संसत्तो किलिट्ठो उ ॥ १ ॥ ( प्रव. सा. ११९ )
जो पाँच आश्रवों में प्रवृत्त, तीन गर्व से प्रतिबद्ध स्त्री तथा ग्रह से संक्लिष्ट का अर्थ घर के धन-धान्य आदि में तृप्तिकारी होता है। असंक्लिष्ट तो
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पासत्थाइएसुं संविग्गेसुं च जत्थ संमिलइ ।
तहिं तारिसओ होई पियधम्मो अहव इयरो उ ॥ १ ॥
उत्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पन्नवेमाणो ।
एसो उ अहाच्छंदो इच्छाच्छंदुत्ति एगट्ठा ||२||७५ ॥ १८९ ॥ ( प्रव. सा. १२०, १२१ )
पार्श्वस्थ आदि में तथा संविग्न में जहाँ भी सम्मिलित होता है, उसमें वैसा ही प्रियधर्मी अथवा उससे इतर हो जाता है वह संसक्त कहा गया है ॥१॥
उत्सूत्र का आचरण करता हुआ तथा उत्सूत्र की प्ररूपणा करता हुआ स्वेच्छाचारी होकर केवल एकार्थ के लिए विचरने वाला यथाछंदी होता है ||२॥
उन्हें वन्दन करने में क्या दोष होता है, उसे बताते हैं - वंदंतस्स उ पासत्थमाइणो नेय निज्जर न कित्ती ।
जाय कायकिलेसो बंधो कम्मस्स आणाइ ॥७६॥ (१९०)
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