Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 311
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् पासत्थादि पांच का वर्णन स्थापना करते हुए नमस्कार को कहते हैं - वंदामि तवं तह संजमं च खंति च बंभचेरं च । जीयाणं च अहिंसा जं च नियत्ता घरावासा ॥७३॥ (१८७) तप, इन्द्रिय-मन के निग्रह रूप संयम, क्षान्ति, ब्रह्मचर्य, जीवों की अहिंसा तथा गृहावास से निवृत्त साधु को प्रणाम करता हूँ।।७३ ।।१८६।। अब यति धर्म के क्षमा प्रधान होने से उसीको उत्कर्ष रूप से बताते हैं - जड़ खमसि तो नमिज्जसि छज्जड़ नामपि तुह खमासमणो । अह न खमसि न नमिज्जसि नामपि निरत्ययं यहसि ॥७४॥ (१८८) यदि शान्ति को धारण करते हो, तो वंदना किये जाते तुम्हारा क्षमाश्रमण नाम भी शोभित होता है। अगर क्षान्ति धारण नहीं करते हो, तो वंदना नहीं किये जाओगे और नाम को भी निरर्थक ही वहन करोगे।।७४।१८८।। अब निरर्थक नाम को धारण करने वाले को ही भेद से कहकर उनके कृत्य बताते हैं - पासत्थओसन्नकुसीलरूया, संसत्तडहाछंदसरूयधारी । आलायमाईहि वियज्जणिज्जा अवंदणिज्जा य जिणागमंमि ॥७५॥ (१८९) ज्ञानादि के पास में जो रहते हैं, वे पार्श्वस्थ हैं। अवसन्न की तरह जो समाचारी के सेवन में पराभग्न हैं वे अवसन्न कहलाते हैं। जिनका शील कुत्सित होता है, वे कुशील हैं। उनका रूप यानि स्वभाव-कुशीलरूप है। सद्-असद् आचार से संपृक्त संसक्त कहलाते हैं। यथा छन्द अर्थात् स्वरूचि-प्रधान होते हैं, उत्सूत्र प्ररूपक होते हैं। उनका स्वरूप जो धारण करते हैं, वे यथाच्छंद स्वरूपधारी होते हैं। आलापादि से, यहाँ आदि शब्द से संवास आदि के द्वारा विवर्जनीय होते हैं। जैसे - आलावो संवासो वीसंभो संथवो पसंगो य । हीणायरेहिं समं सव्वजिणिंदेहिं पडिकुट्ठो ॥१॥ (उपदेशमाला गा. २२३) आलाप, संवास, विश्रम्भ, संस्तव, प्रसंग, हीन-आचरण वाले के साथ सभी जिनेन्द्रों ने निषेध किया है। उपरोक्त सभी प्रकार के साधु जिनागम में अवन्दनीय हैं। इनके स्वरूप की सूचक आगम गाथा इस प्रकार सो पासत्थो दुविहो सव्वे देसे य दोइ नायव्वो । सव्वंमि नाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ॥१॥ देसंमि उ पासत्थो सिज्जायरभिहडनीयपिंडं च । नीयं च अग्गपिंडं भुंजइ निक्कारेण चेव ॥२॥ (प्रव. सा. १०४, २०५ संबोध प्र. गुर्वधिकारे ९, १०) कुलनिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि य अकारणे विसइ ॥ संखडिपलोयणाए गच्छइ तह संथवं कुणइ ॥३॥ (संबोध प्र. ११) वह पार्श्वस्थ सर्व तथा देश के भेद से दो प्रकार का जानना चाहिए। वह सर्व रूप से तो ज्ञान दर्शन चारित्र के पास में रहकर भी उससे रहित जानना चाहिए ।।१।। देश पार्श्वस्थ शय्यांतर पिंड, अभिहत पिंड, नित्य पिंड तथा अग्रपिंड को निष्कारण भोगता है।।२।। कुल की निश्राय में विहार करता है, अकारण स्थापना कुल में प्रवेश करता है, जीमणवार देखने के लिए जाता है, उस प्रकार से संस्तव करता है। अर्थात् जीमणवार से आहार लाने के लिए उसके स्वामी से परिचय 262

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