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सम्यक्त्व प्रकरणम्
सद्गुरु के लक्षण को वन्दन करवाया। फिर दुष्कृत्यों की गर्दा करवायी। सिद्धो की साक्षीपूर्वक संपूर्ण आलोचना करवायी। उस मंत्री ने राजा द्वारा विषदात्री महारानी सूर्यकान्ता के प्रति विशेष रूप से क्षमा याचना करवायी। जो कर्म नरक आदि में अवश्य वेदने योग्य थे, उन कर्मों की उदीरणा करवाकर उन्हें नष्ट करवाने के कारण सूर्यकान्ता महारानी आपकी उपकारिणी है। चिर काल से धर्म की आराधना करते हुए भी अगर आप उस पर द्वेष भाव रखेंगे, तो तपा-तपाकर फूट-फूटकर निकाले हुए सोने को आप एक ही फूंक में उड़ा देंगे। आपने केवल उसी भव में ही नहीं, अपितु नरकादि अनन्तभवों में घूमते हुए तीव्र दुःखों को सहन किया है। उनकी अपेक्षा से तो यह दुःख अल्प ही है - ऐसा विचारकर के हे देव! संपूर्ण दुष्कर्मों की लीलारूप इस दुःख को समाधिपूर्वक सहन करें। यह कहकर व्रत के उच्चारण पूर्वक अनशन देकर आराधना की विधि करवाने से राजा ने परम समाधि को प्राप्त किया। फिर पंचनमस्कार का शुद्ध-मन से उच्चारण करते हुए राजा ने गुरु के पादद्वय में भक्तिपूर्वक शरण को ग्रहण किया। अपने देह का त्यागकर सौधर्म देवलोक में सूर्याभ नामक विमान में चार पल्योपम की स्थितीवाला सूर्याभ नामक देव हुआ। - सूर्यकान्ता ने जब यह जाना कि मैं विष देने वाली जान ली गयी हूँ, तो भागते हुए जंगल में सर्प द्वारा डंसे जाने पर छट्ठी नरक में उत्पन्न हुई। उधर अमलकल्पा नगरी में जगत-पति श्री वीर स्वामी का समवसरण हुआ। यह जानकर अवधिज्ञान से युक्त सूर्याभ देव ने स्वर्ग से आकर प्रभु को कहा - नाथ! कुछ क्षण के लिए व्याख्या का संहरण कीजिए। मैं गौतम आदि मुनीन्द्रों को नाट्य की विचित्रता दिखाऊँगा। प्रभु वीर स्वामी चुपचाप बैठ गये। फिर सूर्याभ देव ने उत्तरपूर्व दिशा में सिंहासन बनाया। उस पर बैठकर दाहिनी भुजा से एक सो आठ खेल निकाले। इसी तरह बायीं भुजा से भी उतनी ही नाटिकाएँ निःसारित की। दिव्य वाद्यंत्र आदि द्वारा बिजली के समान क्रौंधते हुए तीव्र गति से नाट्य विद गान्धर्व नाट्य रचना करने लगे। फिर वह देव अदृष्टपूर्व उद्दाम दिव्य नाट्यविधि दिखाकर भक्तिपूर्वक प्रभु को वन्दनकर स्वर्ग को चला गया। तब गौतम ऋषि ने प्रभु को वंदन करके पूछा - यह
देव कौन था? इसे यह विभूति किस प्रकार प्राप्त हुई। प्रभु ने विस्तारपूर्वक उसके पूर्व भव का चरित्र आदि कहते हुए बताया कि गुरु भक्ति का फल अद्भुत होता है। नरक गमन योग्य कर्मों को प्रौद रूप से उपार्जित करके भी इसने केशी सूरि के प्रसाद से उन कर्मों को नष्ट कर दिया और ऐसा श्रेष्ठ देव बना। यहाँ से आयु क्षय होने पर च्यवकर मनुष्य भव प्राप्त करके विदेही होकर सिद्धि को प्राप्त करेगा।॥४५॥१५९।।
इस प्रकार गुरु-भक्ति में प्रदेशी राजा की कथा पूर्ण हुई। अब सामान्य लोगों के लायक, अन्वय-व्यतिरेक द्वारा गुरु के लक्षण बताते हैं - अक्खरु अक्खड़ किंपि न ईहइ । अन्नुवि भयसंसारह बीहइ । संजमिनियमिहिं खणु वि न मुच्वइ । एहा धम्मिय सुहगुरु युच्चइ ॥४६॥ (१६०) छविहजीवनिकाउ विराहइ पंच वि इंदिय जो न वि साहइ ।
कोहमाणमयमच्छरजुत्तउ सो गुरु नरयह नेइ निरुत्तउ ॥४७॥ (१६१) सिद्धान्त में कहा हुआ जो अक्षर, मात्र भी विपरित रूप से इच्छा नहीं करते हैं अर्थात् संयम का शरण करनेवाले, क्षति करने वाले पदार्थ की इच्छा नहीं करते है। दूसरों को भी भव-संसार से डराते हैं। संयम, नियम आदि का क्षण भर के लिए भी त्याग नहीं करते, ऐसे धार्मिक शुभ गुरु कहे जाते हैं।
जो छः जीव निकाय की विराधना करते हैं, पाँचों इन्द्रियों को जो नहीं साधते। क्रोध, मान, मद, मत्सर से
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