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सम्यक्त्व प्रकरणम्
आचार्य के छत्तीस गुण गाथा- समूह कहते हैं - प्रथम प्रकार से ३६ गुण -
अट्ठविहा गणिसंपय चउग्गुणा नवरि हुंति बत्तीसं । विणओ य चउभेओ छत्तीस गुणा इमे तस्स ॥२९॥ (१४३)
गच्छ रूपी गण जिसका होता है, वह गणी अर्थात् आचार्य है। उसकी संपत्ति समृद्धि आठ प्रकार की है - आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोग मति, संग्रह - परिज्ञा। एक-एक को चार गुणों से इनको गुणित करने पर बत्तीस भेद होते हैं। और विनय के चार भेद मिलाने से छत्तीस गुण गुरु के कहे गये हैं। ___ आचार-अनुष्ठान रूप संपत्ति चार प्रकार की है जैसे - १. चारित्र में नित्य समाधियुक्त रहना। २. आत्मा का जाति आदि के अभिमान रूप आग्रह का वर्जन करना। ३. अनियत विहार करना। ४. शरीर व मन की निर्विकारता।
इसी प्रकार श्रुत सम्पदा भी चार प्रकार की है - १. बहुश्रुतता अर्थात् युग प्रधान रूप से जाने जाना। २. परिचित सूत्रता अर्थात् क्रम से या उत्क्रम से वाचना आदि द्वारा सूत्र में स्थिरता होना। ३. विचित्र सूत्रता - अपने सिद्धान्त आदि के भेद का ज्ञान होना। ४. घोष विशुद्धि करना अर्थात् उदात्त-अवदात्त आदि के विज्ञान द्वारा वाणी के घोष की विशद्धि को जानना।
शरीर सम्पदा भी चार प्रकार की है - १. आरोह - परिमाण युक्तता - उचित दीर्घता आदि विस्तार होना। २. अनवत्रप्यता-अलज्जालु अंग होना। ३. परिपूर्णइन्द्रियता - अनुपहत चक्षु आदि इन्द्रिय होना। ४. स्थिरसंहननता - तप आदि में शक्ति युक्त होना।
वचन संपदा भी चार प्रकार की है - १. वचन की आदेयता होना। २. वचन की मधुरता होना। ३. वचन की मध्यस्थता होना ४. वचन असंदिग्ध होना।
वाचना संपदा भी चार प्रकार की है - १. विदित्व उद्देशनम् - शिष्य के पारिणामिक आदि रूप को जानकर सूत्र दान करना। २. विदित्वा समुद्देशनम् - शिष्य को सम्यग् उद्देश्यपूर्वक कहना। ३. परिनिर्वाप्य वाचना - पूर्व में दिये हुए ज्ञान को आलाप आदि द्वारा शिष्य को ज्ञान कराकर पुनः सूत्रदान करना। ४. अर्थनिर्यापणा - अर्थ का पूर्वापर संगति से ज्ञान कराना।
मति-संपदा भी चार प्रकार की है - १. अवग्रह, २. इहा, ३. अपाय, ४. धारणा।
प्रयोगमति संपदा अर्थात वादमद्रा भी चार प्रकार की है - १. आत्मपरिज्ञानम - वाद आदि सामर्थ्य के विषय में खुद का परिज्ञान होना। २. पुरुष परिज्ञानम् - क्या यह वादी सांख्य है या बौद्ध है? ऐसा ज्ञान होना। ३. क्षेत्रपरिज्ञान- क्या यहाँ माया की बहुलता है? साधुसे भावित है या अभावित? इस प्रकार का क्षेत्र परिज्ञान होना। ४. वस्तज्ञानम - क्या यह राजा है. अमात्य है. सभ्य है. भद्र है या अभद्र है?
संग्रह परिज्ञा-अर्थात् संग्रह-स्वीकार करना, परिज्ञा-अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि का ज्ञान। या पीठ फलकादि विषयवाली चार प्रकार की।
१. पीठ - फलकादि द्रव्य के विषय में, २. बाल- अज्ञानी आदि योग्य क्षेत्र के विषय में, ३. यथा समय स्वाध्याय- भिक्षा आदि के विषय में, ४. यथोचित विनय आदि के विषय में।
विनय के चार भेद हैं, वे इस प्रकार है - आयारे सूयविणए विक्खिणे चेव होइ बोद्धव्वे । दोसस्स य निग्घाए विणए चउहेस पडिवत्ती ॥१॥ (प्रव. सा. गा. ५४६)
आचार विनय, सूत्र विनय, विक्षेपण विनय तथा दोष-निर्घात विषयक विनय - ये चार प्रकार के विनय जानने चाहिए।
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