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केशी गणधर प्रदेशी राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् भिक्षावृत्ति से अपनी आजीविका आरम्भ क्यों की? नपुंसक, कायर तथा व्यापार में अक्षम मनुष्य ही जीविका के लिए पाखण्ड को स्वीकार करते हैं, दूसरे नहीं। अतः इस पाखण्ड को छोड़ो। मेरे माण्डलिक बन जाओ। जातिवन्त घोड़े पर सवार होकर हाथ में भाला व तलवार धारण करो। मेरे दिये हुए देश को प्राप्तकर, मनोरम भोगों को भोगकर मनुष्य जन्म के फल को प्राप्त करो। क्या तुमने नहीं सुना - तप में अनेक यातनाएँ हैं। संयम भोगों की वंचना है। ये सारा क्रिया कलाप बाल-क्रीड़ा की तरह दीखायी पड़ता है। अतः हे आचार्य! मुझे दुर्दान्त-अविचारक भी मत मानना। मेरी माता श्राविका थी, पर मेरे पिता नास्तिक थे। मेरी माता मुझ से कहा करती थी - हे वत्स! सदा दया करना। जीवों की रक्षा से स्वर्ग और वध से नरक प्राप्त होती है। मैं मातृ वत्सल था, अतः माँ के सामने मैंने माता के वचन मानें। इसलिए मैं जीवन भर माता का वल्लभ रहा। पिता मुझसे इस प्रकार कहते - माँ का कथन मत सुना करो। अपनी इच्छानुसार व्यवहार करो। यहाँ कोई रक्षणीय नहीं है। मैंने पितृ-वत्सल होकर पिता के सामने पिता के वचन मानें। अतः जीवन भर उनका भी वल्लभ बना रहा। हे आचार्य! फिर मैंने अपनी माता के मृत्यु काल में उनसे कहा - हे माता। अगर धर्म से तम्हे स्वर्ग प्राप्त हो. तो मझे आकर बताना। फिर मैं भी धर्म करूँगा। म पुत्र को इष्ट होते हुए भी माँ मुझे बोध कराने के लिए नहीं आयी, अतः मैंने यह निश्चय किया कि धर्म जन्य स्वर्ग नहीं है। पिता को भी उनके मृत्युकाल पर मैंने कहा कि अगर पाप कार्यों से आपको नरक मिले तो आप आकर बताना, जिससे मैं पाप-कार्य का त्याग कर दूंगा। पिता ने भी अपने इष्ट पुत्र मुझे आकर नहीं बताया। अतः मैंने यह निश्चय कर लिया कि पापजन्य नरक भी नहीं है।
और भी, बुध जनों ने कहा है कि देह के किसी भी भाग में कहीं भी आत्मा है। हे आचार्य! उसकी भी परीक्षा मेरे द्वारा कर ली गयी है। एक चोर को पकड़कर उसे काट-काटकर संपूर्ण शरीर के तिल जितने टुकड़े कर-कर के देखा, पर आत्मा कहीं दिखायी नहीं दी। फिर मैंने एक जीव को तोला। बाद में गले को अंगूठे से दबाकर उसे मारकर फिर तोला। जितना वजन उस जीवित प्राणी का था. उतना ही वजन उसी मरे हए प्राणी का हआ। जीव के जीवित रहने पर किया गया वजन थोडासा भी ज्यादा नहीं हुआ। अथवा मरे हुए जीव को तोलने पर थोड़ा सा भी वजन कम नहीं हुआ। एक प्राणी को कुम्भी में डालकर कुम्भी का द्वार बन्दकर उस पर लाख लगाकर चारों ओर से नीरन्ध्र कर दिया। वह उस कम्भी में मर गया और उसकी देह में असंख्य कृमि उत्पन्न हो गये। वह शरीर उन जीवों के प्रवेश व निर्गम का द्वार बन गया। चिरकाल बाद जब उस कुम्भी के द्वार को खोलकर उन मरे हुए कीटों को देखकर मैंने निश्चित किया कि भूतों के अतिरिक्त जीव भी नहीं है। इस प्रकार अनेक-विध परीक्षाओं द्वारा सभी सुपरीक्षाएँ करके मैंने नास्तिकता को स्वीकार किया है और मेरा यह कार्य अर्थात् मेरी नास्तिकता अविचारित नहीं है। अतः हे आचार्य! मेरे द्वारा जो कुछ कहा गया है, उस सर्व ज्ञान को जानो। स्वर्ग-मोक्ष आदि के अभाव में तुम्हारा यह सारा क्लेश निष्फल है।
तब गणधर केशी ने कहा हे राजन्! मैंने तुम्हारे वचन सुनें। तुम्हारे द्वारा बोले जाने पर मैंने सावधान होकर विचार किया है। हे राजन्! मैंने भी जीविका के लिए यह व्रत स्वीकार नहीं किया है, किन्तु तत्त्वार्थ का विचारकर मोक्ष सुख की अभिलाषा से यह व्रत ग्रहण किया है। अरणी काष्ठ में अग्नि है - यह सुनकर मैंने भी उसके सैंकड़ों टुकड़े किये। लेकिन हे महाराज! मुझे किसी भी टुकड़े में अग्नि दिखायी नहीं दी। रूपवान होने पर भी जब पदार्थ दिखायी नहीं देते, तो अरूपी जीव न दिखायी पड़े, तो इसमें विरुद्ध क्या है? वह जीव रूपी आत्मा तो विशिष्ट ज्ञान का योग होने पर ही देखा जा सकता है, जैसे कि अरणी काष्ठ को परस्पर रगड़ने पर ही हे राजन्! उसमें अग्नि दिखायी देती है।
हे राजन्! एक बार मैंने मशक में हवा भरकर उसे तौला, फिर खाली करके पुनः उसी मशक को तौला। पर
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