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केशी गणधर प्रदेशी राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् सकता है। इस अर्थ में केशी गणधर तथा प्रदेशी राजा का दृष्टान्त सार्थक है, जो इस प्रकार है -
|| केशी गणधर प्रदेशी राजा की कथा ।। गरिमा से युक्त श्वेतवी नाम की नगरी थी। जहाँ के लोग सदाचार युक्त ज्योति से ज्योतित थे। वहाँ का राजा प्रदेशी था, जिसके प्रताप का कौतुक पक्ष अर्थ में तो चन्द्रमा के समान था और विपक्ष में सूर्य के समान था अर्थात् सज्जनों में तो वह चन्द्रमा के समान शीतल था, पर शत्रुओं में वह सूर्य के समान प्रचण्ड था। सर्व नारियों में शिरोमणि उसके सूर्यकान्ता नामक रानी थी। उसके सूर्य की कान्ति के समान तेजवाला सूर्यकान्त नामक पुत्र था। प्रदेशी राजा के विचक्षण मति वाला चित्र नामक महामन्त्री था। वह राजा के रहस्यों के स्थान रूप होने से राजा का द्वितीय वक्ष था। एक बार राजा ने उस मंत्री को किसी राज्य-कार्य के लिए जितशत्रु राजा की सन्निधि में भेजा। वहाँ पर चित्र महामंत्री ने राजा के महल के नीचे लोगों को संभ्रान्त होकर बाहर आते जाते देखा। मंत्री ने किसी से पूछा - हे महाशय! ये लोग कहाँ जा रहे हैं, जरा बताओ। पूछकर, जानकारी करके उसने भी मन्त्री को बताया - देव! उद्यान में संपूर्ण बारह अंग को धारण करनेवाले, श्री पार्श्वनाथ के सन्तानिक शिष्य, चार ज्ञान से युक्त सर्वज्ञ के समान श्वेताम्बराचार्य आर्य केशी पधारे हैं। अपने संशय का निवारण करने तथा उन्हें नमन करने के लिए ये लोग आ-जा रहे हैं। महामंत्री चित्र भी कौतुक वश नोकर-चाकरों के साथ आगे जाकर उनको ऊपर से स्थित होकर देख रहा था, तभी केशी श्रमण ने अपने ज्ञान से उस महाअमात्य के बोध को जानकर मानो चित्र बनाते हुए उसे उसके चित्र नाम से पुकारा। हे मंत्रीवर! राजा के द्वारा यहाँ कार्य से भेजे गये हो? उस कार्य का पिछली रात्रि में ही राजा द्वारा निर्णय लिया गया था। यह सुनकर महाअमात्य ने विस्मित होते हुए सोचा - छलपूर्वक नाम तो जाना जा सकता है, इसमें कोई कौतुक नहीं है। पर रहस्य मन्त्र को ये कैसे जानते हैं - यही विस निश्चय ही ये पाखण्डी तो नहीं है, फिर क्या है? परमार्थ के ज्ञाता? तब प्रणाम करके उसने गुरु की उपासना की। गुरु ने भी उसी को उद्देश्य करके धर्म का सर्वस्व कथन किया। धर्म के सम्यक्त्व मूल को जानकर उसने भी उसे ग्रहण किया कहा भी है -
रङ्को रत्ननिधि प्राप्य किं न गृह्णाति जातुचित् ? रंक रत्ननिधि को प्राप्त करने पर क्या उसे ग्रहण नहीं करता?
उन गुरु के पास आते जाते उस चित्र मंत्री ने उनके व्याख्यान रस द्वारा दृढ़ धर्मिता को पुष्ट किया। जाने की इच्छावाले उस सिद्ध साध्य ने गुरु को कहा - पूज्य! कभी हमारी नगरी को भी पावन कीजिए। हमारे लोग सर्वथा धर्म कर्म में अनभिज्ञ है। उन अबोधों को प्रतिबोध देने से आपको महान् लाभ होगा। हमारा नास्तिक राजा भी आपके परिपार्श्व में प्रतिबोधित होगा, क्योंकि सूर्योदय होने पर क्या कमल नहीं खिलते? भगवन्! मैं संभावना करता हूँ कि आपके आगमन से वहाँ अर्हत् धर्म का साम्राज्य होगा, क्योंकि आपकी वैसी ही लब्धि है। गुरु ने कहा - हे मंत्रीवर! वर्तमान योग से आपके देश में भी हम आयेंगे, क्योंकि -
मुनयः स्थायिनो न यत् । मुनि कहीं भी स्थायी नहीं होते।
इस प्रकार अय॑थनाकर मंत्री श्वेतवी नगरी चला गया। दूत की तरह अपने मन को गुरु के चरणों में ही छोड़ दिया। सम्यग् ज्ञान के उपयोग से राजा सहित संपूर्ण राज्य के होनेवाले भविष्य के प्रतिबोध को जानकर प्रभु भी प्रत्येक ग्राम प्रत्येक नगर में मनुष्यों को बोधित कर-कर के मुनिराज होते हुए भी राजा की तरह दिग्विजय करने के
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