Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 287
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् वस्त्र शुद्धि, पात्र शुद्धि, असाधु का वर्णन तम्हा जहुत्तदोसेहिं वज्जियं निम्ममो निरासंसो । वसहिं सेविज्ज जई विवज्जए याणईणित्ति ॥१॥ इस कारण निर्ममत्वी, निःकांक्षा से यथोक्त दोषों से वर्जित वसति का साधु-साध्वी आदि सेवन करे।।२०॥१३४।। वस्त्रशुद्धि का वर्णन - जन्न तयट्ठा कीयं ने य युयं नेय गहियमन्नेसि । आहड पामिच्वं यज्जिऊण तं कप्पए वत्थं ॥२१॥ (१३५) जो उसके लिए प्रस्ताव पूर्वक साधु निमित्त न खरीदा हुआ हो, न बुना हुआ हो, न ही अन्य के पास से वस्त्र के बदले वस्त्र देकर बलपूर्वक अथवा छीनकर ग्रहण किया गया हो, वह वस्त्र यति को कल्पता है। आहत तथा प्रामित्य इन दो उद्गम के दोषों का उपलक्षण से यही अर्थ प्रतीत होता है। ____ अतः इन दोनों को छोड़कर यथासंभव पिण्ड के समान उद्गम, उत्पादन व एषणा के दोष यहाँ भी जानने चाहिए। जो क्रीत आदि दोष अलग से कहे गये हैं। उनका बाहुल्य इसी में ही संभव है। अतः विशेष रूप से कहा गया है।।२१।१३५।। अब पात्र शुद्धि को बताते हैं - तुंबय-दारुय-मट्टीपत्तं कम्माइदोसपरिमुक्कं । उत्तम-मज्झ-जहन्नं जईण भणियं जिणयरेहिं ॥२२॥ (१३६)1 कर्मादि दोष से परिमुक्त जघन्य मिट्टि के पात्र, मध्यम लकड़ी के पात्र तथा उत्कृष्ट तुंब के पात्र जिनेश्वरों ने यतियों के लिए बताये हैं।।२२।।१३६।।। अब चतुष्टय शुद्धि को समाप्त करते हुए, इन्हें करता हुआ साधु होता है, उसे कहते हैं - एसा चउक्कसोही निद्दिट्ठा जिणवरेहिं सव्येहिं । एयं जहसत्तीए कुणमाणो भन्नए साहु ॥२३॥ (१३७) ये चार प्रकार की शुद्धि सभी जिनेश्वरों द्वारा निर्दिष्ट है। इनको यथाशक्ति करता हुआ साधु कहा जाता है। जिसका आचरण करते हुए साधु होवे, उसे कहा गया।।२३।।१३७।। अब जिसका आचरण करते हुए साधु नहीं होता, उसको कहते हैं - उद्दिट्ठकडं भुंजइ छक्कायपमद्दणो धरं कुणइ । पच्चक्खं च जलगए जो पियइ कहं नु सो साहू ॥२४॥ (१३८) जे संकिलिट्ठचित्ता माइठाणमि निच्चतल्लिच्छा । आजीविगभयघत्था मूढा नो साहुणो हुंति ॥२५॥ (१३९) जो ओद्देशिक भोजन करता है, उससे छः काय के प्रमर्दन को धारण करता है। प्रत्यक्ष जल में जाकर जो जल पीता है वह साधु कैसे हो सकता है। जो संक्लिष्ट चित्तवाला नित्य दूसरों को ठगने का अभिलाषी है, वह आजीविका के भय से ग्रस्त मूढ़ साधु नहीं है।।२४-२५।।१३८-१३९।। साधु-असाधु के स्वरूप को कहकर पुनः साधु के स्वतत्त्व को कहने के लिए उपदेश करते हैं - सीलंगाण सहस्सा अट्ठारस जे जिणेहिं पन्नत्ता । जो ते धरेइ सम्म गुरुबुद्धी तंमि कायव्या ॥२६॥ (१४०) 1. वर्तमान में एल्युमिनियम के घड़े लाल रंग से रंगकर साथ रखनेवाले सोचें। 238

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