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सम्यक्त्व प्रकरणम्
आर्यखपुटाचार्य की कथा में चंक्रमित कर दिया। तभी एक कंचुकी ने आकर उच्च स्वर में कहा - हे देव! कोई आपके अन्तःपुर में स्थित नारियों पर पत्थर आदि से प्रहार कर रहा है। प्रहार करने वाला दिखायी नहीं देता, लेकिन सर्वत्र देवियों का क्रन्दन स्वर ही सुनायी दे रहा है। तब राजा ने कहा - हे लोगों! यह कोई विद्यासिद्ध है। मेरे अन्तःपुर को मारा जा रहा है, अतः इसे मत मारो। यह कहकर नृप ने कहा - अहो! अज्ञजनों द्वारा आपकी कदर्थना की गयी। हमारा वह अपराध आप क्षमा करे। क्योंकि -
सन्तो हि नतवत्सलाः। सज्जन तो वत्सल भाव वाले होते है।
यह सुनकर गुरु अपने वेष को यथावस्थित करते हुए खड़े हो गये। तब आर्य खपुटाचार्य को देखकर सभी लोग विस्मित हो गये। भक्तियुक्त होकर सभी ने वन्दना की। राजा ने भी बार-बार प्रशंसा की। तब राजा तथा नागरिक आदि के मध्य स्थित गुरु चले। गुरु की संभावित दृष्टि से बटुकर गुरु के पीछे-पीछे चलने लगा और वहाँ अपर रूप में दूसरे प्रतिष्ठित देव भी गुरु के पीछे-पीछे चलने लगे। तब यक्षायतन द्वार पर स्थित दो कुण्डिकाये भी गुरु के साथ पुर में जाने के लिए गुरु के पीछे-पीछे चल पड़ी। तब गेंद की तरह उनको उछलते कुदते देखकर सभी मिथ्यादृष्टि भी विस्मित रह गये। नगर का द्वार आने पर राजा आदि द्वारा कहा गया - प्रभो! इन देव रूपों को यहीं रुकने का आदेश दीजिये। तब गुरु के आदेश से वे देव अपने-अपने स्थान पर चले गये। द्वार के उभय पक्ष पर वे दो कुण्डिकायें वहीं छोड़ दी। तथा कहा - जो मेरे तुल्य है वह इसे अपने स्थान पर ले जाये। वे कुण्डिकायें आज भी वहीं स्थित हैं। आचार्य ने पुनः नगर में प्रवेश किया।
वह बटुकर यक्ष भी गुरु के माहात्म्य को देखकर उपशान्त होता हुआ जिनधर्म की प्रभावना करने लगा। राजा भी अति विस्मित होता हुआ श्रावक बन गया। अन्य बहुत से जनों ने भी जिनधर्म में रति प्राप्त की। सभी लोग जिन शासन की प्रशंसा करने लगे कि आर्हतों जैसा प्रभाव अन्य किसी भी दर्शन में नहीं है।
भरुकच्छ पुर में गुरु का वह भाणेज प्रान्त-आहार से उद्विग्न होकर गच्छ से निकल गया। आहार-रस से गृद्ध आत्मा वाला वह अपनी जीभ के वश में होकर सोगत भिक्षुओं की शरण में चला गया। ठीक ही कहा गया है -
कुर्यात किं न अजितेन्द्रियः? इन्द्रियों से अजित क्या नहीं करता?
भोजन के लिए वह क्षुल्लक सभी पात्र विद्या प्रयोग से आकाशमार्ग द्वारा उपासकों के घर पर भेजता था। उनके आगे स्थित वह क्षुल्लक का पात्र श्वेत वस्त्र से ढका हुआ सभी में अग्रणी की तरह जाता था। यह देखकर कौतुक में आक्षिप्त चित्तवाले वे उपासक भी शालि आदि आहार-जात से उन पात्रों को भरते थे। पर उस अग्रेसर पात्र को श्रेष्ठ आसन पर रखकर विविध खण्ड-खाण्ड आदि द्वारा उसको भरते थे। तब सभी नागरिक उन्मुखी भूत हुए मेघ की तरह बौद्ध मठों की ओर जाते हुए दिखायी देने लगे। उस प्रकार के आश्चर्य को देखकर दूसरे लोग भी बौद्धों के दर्शन में लग गये। कुछ श्रावक भी बौद्ध बन गये। वे कहने लगे कि इस प्रकार का अतिशय प्रभाव सोगत दर्शन को छोड़कर अन्यत्र न कहीं देखा न पढ़ा। सर्वत्र बौद्ध संघ की मानना व जैन संघ की अवमानना होने लगी। बौद्ध मत ही मुख्य है - इस प्रकार की ख्याति लोगों में हो गयी।
जैन संघ की अवमानना देखकर संघ ने दो साधुओं को गुड़शस्त्र नगर भेजकर गुरु को यह जानकारी करवायी। तब आर्य खपुटाचार्य ने वह सब सुनकर पुर से तुरन्त भरुकच्छ आये। क्योंकि -
किं दूरं लब्धिशालिनाम्।। लब्धि-धारियों के लिए क्या दूर है?
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